Rishi Prashar
माता के गर्भ में रहते हुए ऋषि पराशर को ब्रह्माण्ड पुराण का ज्ञान प्राप्त हुआ
ऋषि पराशर शर-शय्या पर पड़े भीष्म से मिलने गये थे। परीक्षित् के प्रायोपवेश के समय उपस्थित कई ऋषि-मुनियों में वे भी थे। वे छब्बीसवें द्वापर के व्यास थे। जनमेजय के सर्पयज्ञ में उपस्थित थे। पराशर के पिता का नाम शक्तिमुनि था और उनकी माता का नाम अद्यश्यन्ती था। शक्तिमुनि महर्षि वशिष्ठ के पुत्र और वेदव्यास के पितामह थे। इस आधार पर पराशर महर्षि वशिष्ठ के पौत्र थे। शक्तिमुनि का विवाह तपस्वी वैश्य चित्रमुख की कन्या अदृश्यन्ती से हुआ था। माता के गर्भ में रहते हुए पराशर ने पिता के मुँह से ब्रह्माण्ड पुराण सुना था कालान्तर में उन्होंने प्रसिद्ध जितेन्द्रिय मुनि एवं युधिष्ठिर के सभासद जातुकर्ण्य को उसका उपदेश किया था। पराशर बाष्कल के शिष्य थे। ऋषि बाष्कल ऋग्वेद के आचार्य थे। याज्ञवल्क्य, पराशर, बोध्य और अग्निमाढक इनके शिष्य थे।
बाष्कल ने ऋग्वेद की एक शाखा के चार विभाग करके अपने इन शिष्यों को पढ़ाया था। पराशर याज्ञवल्क्य के भी शिष्य थे। इक्ष्वाकुवंशी अयोध्या के राजा ऋतुपर्ण के पौत्र सुदास हुए थे। उनके पुत्र वीरसह (मित्रसह) हुए, जो सुदास-पुत्र होने से सौदास भी कहलाते थे। महर्षि वशिष्ठ के शाप से वे नरभोजी राक्षस कल्माषपाद हुए। राक्षस रूप कल्माषपाद ने शक्ति सहित महर्षि वशिष्ठ के सौ पुत्रों को खा लिया। इससे महर्षि वशिष्ठ ने आत्महत्या के कई प्रयत्न किये, पर सफल नहीं हुए। अतः शक्ति की पत्नी अदृश्यन्ती को साथ लेकर वे हिमालय पर पहुँचे। एक बार महर्षि वशिष्ठ ने वेदाध्ययन की ध्वनि सुनी तो चकित रह गये इसलिए कि वेद-पाठ करने वाला कोई वहाँ दिखाई नहीं दे रहा था। तब अदृश्यन्ती ने उन्हें बता दिया कि शक्ति का पुत्र मेरे गर्भ में है और उसी के वेदाध्ययन की ध्वनि सुनी गयी है। यह सुनकर वशिष्ठ इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने मृत्यु की इच्छा छोड़ दी।
जन्मोपरांत पराशर ने सुन लिया कि राक्षस कल्माषपाद ने उनके पिता शक्ति को खा लिया था। यह सुनते ही उनके मन में राक्षसों के प्रति घोर विरोध उत्पन्न हुआ और उन्होंने संसार से राक्षसों का अन्त कर डालने का निश्चय किया। इस आशय से उन्होंने अपना राक्षस-सत्र आरंभ किया जिसमें राक्षस मरते जा रहे थे। कई राक्षस स्वाहा हो गये तो निऋति की आज्ञा पाकर महर्षि पुलस्त्य पराशर के पास गये और राक्षसवंश को बचाये रखने के लिए राक्षस-सत्र पूर्ण करने की प्रार्थना की। उन्होंने अहिंसा का उपदेश दिया। व्यास ने भी पराशर को समझाया कि बिना किसी दोष के समस्त राक्षसों का संहार करना अनुचित है इसलिए आप अपना यज्ञ पूर्ण करें।
पुलस्त्य तथा व्यास के सदुपदेशों से प्रभावित होकर पराशर ने अपना राक्षस-सत्र पूर्ण किया। उन्होंने अग्नि को हिमालय के समतल प्रदेश में रख दिया। पुलस्त्य ने राक्षस-सत्र पूर्ण करने के उपलक्ष्य में उन्हें कई प्रकार के आशीर्वाद दिये। उन्होंने बताया कि क्रोध करने पर भी तुम ने मेरे वंश का मूलोच्छेद नहीं किया। उसके लिए तुम को एक विशेष वर प्रदान करता हूँ। तुम पुराण संहिता के रचयिता बनोगे। देवता तथा परमार्थतत्त्व को यथावत् जान सकोगे और मेरे प्रसाद से निवृत्त और प्रवृत्तिमूलक धर्म में तुम्हारी बुद्धि निर्मल एवं असंदिग्ध रहेगी।
पुत्र प्राप्ति के लिए
पुत्र का नाम मत्स्य पड़ा, जो विराट राजा बना। पुत्री का नाम काली रखा गया और वह एक धीवर के यहाँ पालित हुई। काली या मत्स्यगंधा जब किञ्चित् बड़ी हुई तब वह अपने पालित पिता की नाव चलाने के काम में सहायता करती थी। एक प्रातःकाल पराशर यमुना पार करने के लिए आये। धीवर कन्या काली ने ही नाव खेयी। उसे देख पराशर मुनि मुग्ध हो गये और उससे कामपूर्ति की प्रार्थना की। दूसरा कोई न देख पाए इसके लिए मुनि ने कुहासे की सृष्टि की और उसके साथ संभोग किया, जिसके फलस्वरूप ऋषि पराशर के पुत्र वेदव्यास का जन्म हुआ।
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