भगवान शिव का सातवां अवतार है गृहपति। प्राचीन काल में नर्मदा के तट पर धर्मपुर नाम का एक नगर था। वहाँ विश्वानर नाम के एक मुनि तथा उनकी पत्नी शुचिष्मती रहती थी। शुचिष्मती ने बहुत काल तक नि:संतान रहने पर एक दिन अपने पति से शिव के समान पुत्र प्राप्ति की इच्छा की। पत्नी की अभिलाषा पूरी करने के लिए मुनि विश्वनार काशी आ गए। उन्होंने यहाँ पर कठोर तपस्या द्वारा भगवान शिव के वीरेश लिंग की आराधना की। एक दिन मुनि को वीरेश लिंग के मध्य एक बालक दिखाई दिया। मुनि ने बाल रूप धारी शिव की पूजा की। उनकी पूजा से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने शुचिष्मति के गर्भ से अवतार लेने का वरदान दिया। कालांतर में शुचिष्मति गर्भवती हुई और भगवान शंकर शुचिष्मती के गर्भ से पुत्र रूप में प्रकट हुए। पितामह ब्रह्मा ने ही उस बालक का नाम गृहपति रखा था। एक बार गृहपति के दर्शन करने के लिए नारद जी आये। उन्होंने गृहपति को देखकर बताया कि यह बालक सर्वगुण सम्पन्न है किन्तु बारह वर्ष की आयु मे इसे बिजली अथवा अग्नि द्वारा भय उत्पन्न होगा। इसे सुनकर विश्वानर मुनि रोने लगे। उस समय गृहपति ने अपने माता-पिता को सान्त्वना देते हुए कहा कि मै भगवान मृत्युञ्जय की आराधना करके महाकाल को भी जीत लूँगा। अतः आप लोग निश्चिन्त रहें।
इसके बाद गृहपति काशी गये और भगवान विश्वनाथ का दर्शन किया। उसके बाद शुभ मुहूर्त मे शिवलिंग की स्थापना करके उनकी आराधना करने लगे। कुछ दिनो बाद देवराज इन्द्र प्रकट हुए और उनसे वर माँगने को कहा। गृहपति ने उन्हें दुत्कारते हुए कहा कि तुम दुराचारी हो। मैं तुमसे वर-याचना नहीं करूँगा। मेरे वरदायक केवल भगवान शिव ही है। यह सुनकर इन्द्र बहुत क्रुद्ध हुआ। उसने प्रहार करना चाहा। उसी समय भगवान शिव प्रकट हो गये। उन्होंने बताया कि इन्द्र रूप मे प्रकट होकर मै ही तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। तुम उस परीक्षा मे सफल हो गये हो। अब तुम्हारे ऊपर यमराज का भी प्रभाव नही पड़ेगा। तुम्हारे द्वारा स्थापित यह शिवलिंग अग्नीश्वर नाम से प्रसिद्ध होगा। इनका दर्शन करने से मनुष्य बिजली और अग्नि से भयभीत एवं पीड़ित नही होगा।