ऋषि भृगु के द्वारा भगवान विष्णु को शाप
(Rishi Bhrigu ke dwara Bhagwan Vishnu ko sharp)
शापित जीवन हमेशा दुखदायी माना जाता है। धार्मिक कथाओं की मानें तो यहां तक कि भगवान भी इसके दुष्परिणामों से बच नहीं पाए हैं। ऋषि दुर्वासा हमेशा अपने क्रोध और उसमें लोगों को श्राप देने के लिए जाने जाते रहे हैं। भगवान शिव से लेकर कृष्ण तक इसका परिणाम भुगत चुके हैं। ऋषि भृगु का भगवान विष्णु को शाप देना जिसने हिंदू सभ्यता को जीने की राह दी। असुर गुरु शुक्राचार्य के पिता ऋषि भृगु ने भगवान विष्णु को कई बार धरती पर जन्म लेने का श्राप दिया था इसीलिए उन्होंने राम, कृष्ण, नरसिंहा और परशुराम आदि रूपों में मनुष्य रूप में जन्म लिया।
शुक्राचार्य ने भगवान शिव को प्रसन्न कर प्राप्त किया मृत-संजीवनी का वरदान: शुक्राचार्य बृहस्पति से अधिक ज्ञानी थे, इसके बाद भी देवराज इंद्र ने उनकी जगह बृहस्पति को अपना गुरु माना। इसे अपना अपमान मानकर शुक्राचार्य ने असुरों का गुरु बनना स्वीकार कर लिया और असुरों के माध्यम से इंद्र से बदला लेने की ठानी। लेकिन देवों को अमरता का वरदान था और असुरों को नहीं, इसलिए शुक्राचार्य को यह अच्छी तरह पता था कि असुर कभी भी देवों से जीत नहीं पाएंगे। इस मुश्किल का हल पाने के लिए शुक्राचार्य ने भगवान शिव को प्रसन्न कर मृत-संजीवनी का वरदान पाने की युक्ति सोची। यह वह चीज थी जिससे किसी मृत को भी जिंदा किया जा सकता था। शुक्राचार्य भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कठिन तपस्या करने निकल गए लेकिन जाने से पहले उन्होंने असुरों को अपने माता-पिता ऋषि भृगु और मां काव्यमाता की कुटिया में रहने का निर्देश दिया ताकि उनकी अनुपस्थिति में देवता उन्हें नुकसान ना पहुंचा सकें। जब इंद्र को यह बात पता चली तो उन्होंने इसे देवों को जीतने का एक सुनहरा अवसर माना। सुरक्षा कवच का निर्माण: एक दिन जब ऋषि भृगु कुटिया में नहीं थे उन्होंने वहां आक्रमण कर दिया। लेकिन काव्यमाता ने अपने तेज से एक सुरक्षा कवच का निर्माण किया जिससे देव असुरों को नुकसान नहीं पहुंचा सके। इस प्रकार देवता असुरों से हारने लगे। भगवान विष्णु को जब यह बात पता चली तो उन्होंने देवों की रक्षा करने की सोची। वे इंद्र का रूप धरकर कुटिया में गए और जब काव्यमाता देवों को परास्त करने लगीं तो अपने सुदर्शन चक्र से उनका सिर काट दिया। ऋषि भृगु को जब यह बात पता चली तो उन्होंने भगवान विष्णु को श्राप दिया कि उन्हें भी बार-बार धरती पर जन्म लेकर जन्म-मरण के कष्टों को महसूस करना होगा। हालांकि बाद में ऋषि ने कामधेनु गाय की मदद से काव्यमाता को जिंदा कर लिया लेकिन उन्होंने भगवान विष्णु को दिया श्राप वापस नहीं लिया। इस प्रकार धरती पर बार-बार पहले राम और फिर कृष्ण रूप में जन्म लिया। इसके अलावा नरसिंहा, परशुराम आदि रूपों में भी वे धरती पर अवतरित हुए। राम के जन्म से रामायण की रचना हुई और कृष्ण के अवतार में महाभारत कथा हुई। इस प्रकार जगत को ‘रामायण’ और ‘गीता’ ग्रंथ मिले।
ऋषि भृगु को त्रिदेवों की परीक्षा लेने का दायित्व मिला: ऋग्वेद के दूसरे श्लोक में दो ऋषियों का नाम आया है। पहला भृगु ऋषि तथा दूसरा अंगीरा ऋषि। अंगीरा ऋषि भृगु जी के बड़े भाई माने जाते है परन्तु भृगु ऋषि का अपना विशेषता ज्यादा है। भृगु ऋषि की एक ज्योतिष पुस्तक है जिसको सबसे पुरानी ज्योतिष ग्रन्थ माना जाता है जो कि भृगु संहिता के नाम से प्रचलित है। पुराणों के अनुसार अनुसार मंदराचल पर्वत पर हो रहे यज्ञ में ऋषि-मुनियों में इस बात पर विवाद छिड़ गया की त्रिदेव यानी भगवान ब्रह्मा, भगवान विष्णु, और भगवान महेश में से सबसे श्रेष्ठ देव कौन है।
सबसे श्रेष्ठ देव कौन?: इस विवाद के अंत में यह निष्कर्ष निकला कि जो देव सत्वगुणी होंगे, वही श्रेष्ठ कहलाएंगे। परंतु ऐसे महान देवों की परीक्षा लेने में सक्षम कौन हैे? सभी ऋषि-मुनियों ने महर्षि भृगु की ओर इशारा किया और इस काम के लिए भृगु ऋषि को नियुक्त किया गया। सर्वप्रथम भृगु ऋषि ब्रह्मलोक पहुंचे। वहां जाकर वह बिना कारण ही ब्रह्मा जी पर क्रोधित हो गये आप सभी ने मेरा अनादर किया है। यह देख ब्रह्मा जी को भी क्रोध आ गये और उन्होंने कहा कि तुम अपने पिता से ही आदर की आशा रखते हो। भृगु तुम कितने भी बड़े विद्वान क्यों ना हो जाओ तुम्हें अपनों से बड़ों का आदर करना नहीं भूलना चाहिए। भृगु ऋषि ने देखा कि इनमें क्रोध आगमन हो गया है, इसलिए वह वहाँ से चले गये।
भृगु ऋषि द्वारा भगवान शिव की परीक्षा: भृगु ऋषि भगवान शिव की परीक्षा लेने के लिए कैलाश पर्वत पहुँचे तब उन्हें पता चला की भगवान शिव अपने ध्यान में लीन हैं। इसलिए उन्होंने नंदी से कहा कि जाओ मेरे आने की सूचना भगवान शिव को दो। नंदी ने कहा महर्षि मैं ऐसा नहीं कर सकता भगवान शिव क्रोधित हो जाएंगे। भृगु ऋषि स्वयं उसी स्थल पर पहुँच गये जहां भगवान शिव ध्यान कर रहे थे। वहां पहुंचकर भृगु ऋषि भगवान शिव का आवाहन करने लगे। और बोले कैलाश हो या कहीं भी ऋषि-मुनियों के लिए तो आप का द्वार सदैव खुला रहता है। महर्षि भृगु के आवाज से भगवान शिव का ध्यान भंग हो गया और वह क्रोधित होकर बोले भृगु तुम्हारी मौत तुम्हें यहां तक ले आई है। आज तुम्हारी मौत निश्चित है। मैं इसी क्षण तुम्हें भस्म कर देता हूँ। इतने में वहाँं माता पार्वती आ गई और भगवान शिव से भृगु ऋषि की प्राणों की रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगी।
महर्षि भृगु के पैर पकड़ लिए: माता पार्वती ने भगवान शिव को बताया इसमें भृगु ऋषि की कोई गलती नहीं है। वह तो बस पृथ्वी के सभी ऋषि-मुनियों का मार्ग दर्शन करना चाहते हैं। यह सब जानकर भगवान शिव का क्रोध शांत हो गया। और फिर उन्होंने भृगु ऋषि को बताया कि क्रोध तो मेरा स्थाई भाव है। भृगु ऋषि भगवान विष्णु की परीक्षा लेने के लिए बैकुंठ धाम पहुँचे। उन्होंने देखा की भगवान विष्णु निद्रा की अवस्था में लेटे हुये है उन्हें लगा कि जानबूझकर भगवान विष्णु सोने का नाटक कर रहे हैं। तब उन्होंने अपने पैरों से भगवान विष्णु के छाती पर आघात किया। भगवान विष्णु की निद्रा भंग हो गई और उठते ही महर्षि भृगु के पैर पकड़ लिए और कहा- महर्षि आपके पैरों को कहीं चोट तो नहीं लगी।
भृगु द्वारा भृगु संहिता की रचना: महर्षि भृगु यह देखकर लज्जित के साथ-साथ प्रसन्न हुये। इसके बाद भृगु ऋषि ने भगवान श्री हरि विष्णु को त्रिदेव में श्रेष्ठ सत्वगुणी घोषित कर दिया। भृगु ऋषि ब्रह्मा जी के नौ मानस पुत्रों में अन्यतम हैं। एक प्रजापति भी हैं और सप्तर्षियों में इनकी गणना है। प्रजापति दक्षकी कन्या ख्याति देवी को भृगु ऋषि ने अपनी पत्नी रूप में स्वीकार किया। भृगु ने ही भृगु संहिता की रचना की। उसी काल में उनके भाई और गुरु स्वायंभुव मनु ने मनु स्मृति की रचना की थी। भूत, भविष्य एवं वर्तमान बताने वाले भृगु ऋषि विश्व के अद्वितीय ज्योतिषी माने जाते हैं।
भगवान विष्णु के अवतार-Bhagwan Vishnu ke Avatars