एक बार सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार यह चारों सनकादि ऋषि कहलाते है और देवताओं के पूर्वज माने जाते है सम्पूर्ण लोकों से विरक्त होकर चित्त की शान्ति के लिये भगवान विष्णु के दर्शन करने हेतु उनके बैकुण्ठ लोक में गये। बैकुण्ठ के द्वार पर जय और विजय नाम के दो द्वारपाल पहरा दिया करते थे। जय और विजय ने इन सनकादिक ऋषियों को द्वार पर ही रोक लिया और बैकुण्ठ लोक के भीतर जाने से मना करने लगे। उनके इस प्रकार मना करने पर सनकादिक ऋषियों ने कहा-अरे मूर्खों! हम तो भगवान विष्णु के परम भक्त है। हमारी गति कहीं भी नही रुकती है। हम देवाधिदेव के दर्शन करना चाहते है। तुम हमें उनके दर्शनों से क्यों रोकते हो? तुम लोग तो भगवान की सेवा में रहते हो तुम्हें तो उन्हीं के समान समदर्शी होना चाहिये। भगवान का स्वभाव परम शान्तिमय है। हमें भगवान विष्णु के दर्शन के लिये जाने दो। ऋषियों के इस प्रकार कहने पर भी जय और विजय उन्हें बैकुण्ठ के अन्दर जाने से रोकने लगे। जय और विजय के इस प्रकार रोकने पर सनकादिक ऋषियों ने क्रोध में आकर कहा-भगवान विष्णु के समीप रहने के बाद भी तुम लोगों में अहंकार आ गया है और अहंकारी का वास बैकुण्ठ में नही हो सकता। इसलिए हम तुम्हें शाप देते है कि तुम लोग पापयोनि में जाओ और अपने पाप का फल प्राप्त करो। शाप देने पर जय और विजय भयभीत होकर उनके चरणों में गिर पड़े और क्षमा माँगने लगे।
यह जानकर कि सनकादिक ऋषिगण भेंट करने आये है भगवान विष्णु स्वयं लक्ष्मी जी एवं अपने समस्त पार्षदों के साथ उनके स्वागत के लिए पधारे। भगवान विष्णु ने उनसे कहा-हे मुनीश्वरों! ये जय और विजय नाम के मेरे पार्षद है। इन दोनों ने अहंकार बुद्धि को धारण कर आपका अपमान करके अपराध किया है। आप लोग मेरे प्रिय भक्त हैं और इन्होंने आपकी अवज्ञा करके मेरी भी अवज्ञा की है। इनको शाप देकर आपने उत्तम कार्य किया है। इन अनुचरों ने ब्रह्मणों का तिरस्कार किया है और उसे मैं अपना ही तिरस्कार मानता हूँ। मैं इन पार्षदों की ओर से क्षमा याचना करता हूँ। अतः मैं आप लोगों की प्रसन्नता की भिक्षा चाहता हूँ। श्रीहरि के इन मधुर वचनों से सनकादिक ऋषियों का क्रोध तत्काल शान्त हो गया। भगवान की इस उदारता से वे अति अनन्दित हुये और बोल आप धर्म की मर्यादा रखने के लिये ही ब्राह्मणों को इतना आदर देते है। हे नाथ! हमने इन निरपराध पार्षदों को क्रोध के वश में होकर शाप दे दिया है इसके लिये हम क्षमा चाहते है। आप उचित समझें तो इन द्वारपालों को क्षमा करके हमारे शाप से मुक्त कर सकते है। भगवान विष्णु ने कहा हे मुनिगणों! मै सर्वशक्तिमान होने के बाद भी ब्राह्मणों के वचन को असत्य नही करना चाहता क्योंकि इससे धर्म का उल्लंघन होता है। आपने जो शाप दिया है वह मेरी ही प्रेरणा से हुआ है। ये अवश्य ही इस दण्ड के भागी है। ये दिति के गर्भ में जाकर दैत्य योनि को प्राप्त करेंगे और मेरे द्वारा इनका संहार होगा। ये मुझसे शत्रुभाव रखते हुये भी मेरे ही ध्यान में लीन रहेंगे। मेरे द्वारा इनका संहार होने के बाद ये पुनः इस धाम में वापस आ जायेंगे।
पुत्र प्राप्ति के लिए दिति कीे ऋषि मरीचि से प्रार्थना
भगवान को प्रसन्न करने के लिए मरीचि नन्दन कश्यप जी ने खीर की आहुति डाली गयी। आराधना समाप्त करके सन्ध्या काल के समय अग्निशाला में ध्यानस्थ होकर बैठे गये। उसी समय दक्ष प्रजापति की पुत्री दिति कामातुर होकर पुत्र प्राप्ति की लालसा से कश्यप जी के निकट गई। दिति ने कश्यप जी से मीठे वचनों से अपनी इच्छा प्राप्ति के लिए प्रार्थना की। मुनि कश्यप जी ने कहा प्रिये! मैं तुम्हें तुम्हारी इच्छानुसार तेजस्वी पुत्र अवश्य दूँगा। किन्तु तुम्हें कुछ प्रतीक्षा करनी होगी। सन्ध्या काल में सूर्यास्त के पश्चात् भूतनाथ भगवान शंकर अपने भूत, प्रेत तथा यक्षों को लेकर बैल पर चढ़ कर विचरते है। इस समय वह अप्रसन्न हो जायेंगे इसलिए यह समय सन्तानोत्पत्ति के लिये उचित नहीं है। सन्ध्यावन्दन और भगवत् पूजन आदि के लिये है। इस समय जो पिशाचों जैसा आचरण करते हैं वे नरकगामी होते है। दिति को इस प्रकार समझाने पर भी उसे कुछ भी समझ न आया। तद्पश्चात् दति ने गर्भ धारण कर के कश्यप जी से प्रार्थना की हे आर्यपुत्र! भगवान भूतनाथ मेरे अपराध को क्षमा करें और मेरा यह गर्भ नष्ट न करें। उनका स्वभाव बड़ा उग्र है। किन्तु वे अपने भक्तों की सदा रक्षा करते हैं। वे मेरे बहनोई हैं मैं उन्हें नमस्कार करती हूँ। दिति के गर्भ से हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप जुड़वां पुत्रों ने जन्म लिया इसके जन्म से पृथ्वी कांप उठी। आकाश में नक्षत्र और दूसरे लोक इधर से उधर दौड़ने लगे। समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें पैदा हो उठीं और प्रलयंकारी हवा चलने लगी। ऐसा ज्ञात हुआ मानो प्रलय आ गई हो। हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप दोनों पैदा होते ही बड़े हो गए। दैत्यों के बालक पैदा होते ही बड़े हो जाते है और अपने अत्याचारों से धरती को कपांने लगते हैं। यद्यपि हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप दोनों बलवान थे। वह संसार में अजेयता और अमरता प्राप्त करना चाहते थे।
अंहकार में काल के प्रभाव से अंजान
हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों ने ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए बहुत बड़ा तप किया। उनके तप से ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रकट होकर कहा तुम्हारे तप से मैं प्रसन्न हूँ। वर मांगो क्या चाहते हो? हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ने उत्तर दिया प्रभो हमें ऐसा वर दीजिए जिससे न तो कोई युद्ध में हमें पराजित कर सके और न कोई मार सके। ब्रह्माजी तथास्तु कहकर अपने लोक में चले गए। ब्रह्मा जी से अजेयता और अमरता का वरदान पाकर हिरण्याक्ष क्रूर और स्वेच्छाचारी बन गया। वह तीनों लोकों में अपने को सर्वश्रेष्ठ मानने लगा और स्वयं विष्णु भगवान को भी अपने समक्ष तुच्छ मानने लगा। हिरण्याक्ष के मन में तीनों लोकों को जीतने का विचार आया वह हाथ में गदा लेकर इन्द्रलोक में जा पहुंचा। देवता उसके भय इन्द्रलोक भाग गए और समस्त इन्द्रलोक पर हिरण्याक्ष का अधिकार स्थापित हो गया। जब इन्द्रलोक में युद्ध करने के लिए कोई नहीं मिला तो हिरण्याक्ष वरुण की राजधानी विभावरी नगरी में जा पहुंचा। उसने वरुण के समक्ष उपस्थित होकर कहा वरुण देव आपने दैत्यों को पराजित करके राजसूय यज्ञ किया था। आज आपको मुझे पराजित करना पड़ेगा। हिरण्याक्ष का कथन सुनकर वरुण के मन में रोष तो उत्पन्न हुआ किंतु उन्होंने भीतर ही भीतर उसे दबा दिया। बड़े शांत भाव से बोले तुम महान् योद्धा और शूरवीर हो तुमसे युद्ध करने के लिए मेरे पास शौर्य कहाँ? तीनों लोकों में भगवान विष्णु को छोड़कर कोई भी ऐसा नही है जो तुमसे युद्ध कर सके इसलिए उन्हीं के पास जाओ।
वराह अवतार
हिरण्याक्ष भगवान विष्णु की खोज में समुद्र के नीचे रसातल में जा पहुँचा। रसातल में पहुँचकर उसने एक विस्मयजनक दृश्य देखा। उसने देखा एक वराह अपने दाँतों के ऊपर धरती को उठाए हुए चला जा रहा है। वह मन ही मन सोचने लगा यह वराह कौन है? कोई भी साधारण वराह धरती को अपने दाँतों के ऊपर नही उठा सकता। अवश्य यह वराह के रूप में भगवान विष्णु ही है। हिरण्याक्ष वराह को लक्ष्य करके बोल उठा तुम अवश्य ही भगवान विष्णु हो। धरती को रसातल से कहाँ लिए जा रहे हो? यह धरती तो दैत्यों के उपभोग की वस्तु है। इसे रख दो। तुम अनेक बार देवताओं के कल्याण के लिए दैत्यों को छल चुके हो। आज तुम मुझे छल नही सकोगे। आज में पुराने बैर का बदला तुमसे चुका कर रहूंँगा। हिरण्याक्ष गदा लेकर भगवान विष्णु पर टूट पड़ा भगवान के हाथों में कोई अस्त्र शस्त्र नही था। इसलिए उन्होंने दूसरे ही क्षण हिरण्याक्ष के हाथ से गदा छीनकर दूर फेंक दिया इससे हिरण्याक्ष क्रोध में आ गया और उसने भगवान विष्णु पर त्रिशूल का प्रहार किया। भगवान विष्णु ने शीघ्र ही सुदर्शन का आह्वान किया और चक्र से हिरण्याक्ष के त्रिशूल के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। भगवान विष्णु के हाथों मारे जाने के कारण हिरण्याक्ष बैकुण्ठ लोक की प्राप्ति हुई और वह फिर भगवान के द्वारपाल के रूप में अपना जीवन सफल करने लगा।
भगवान विष्णु के अवतार-Bhagwan Vishnu ke Avatars