भगवान ऋषभनाथ जिन्हें जैन धर्म का पहले तीर्थंकर के रूप में जाना जाता है। तीर्थ कर का अर्थ होता है जो तीर्थ की रचना करे जो संसार के जन्म मरण से मोक्ष तक के तीर्थ की रचना करे वह तीर्थंकर कहलाते हैं। ऋषभदेव जी को ऋषभनाथ, आदिनाथ भी कहा जाता है। आग्नीध्रनन्दन महाराज नाभि के कोई संतान नहीं थी। इस कारण उन्होंने अपनी धर्मपत्नी मेरूदेवी के साथ पुत्र की कामना से यज्ञ प्रारंभ किया। प्रभु प्रसन्न हुए और शंख-चक्र-गदा पद्मधारी चतुर्भुज नारायण प्रकट हुए।
ऋत्विजों ने राजा रानी के सहित सौंदर्य सुधासिन्धु अनन्त गुण निधान प्रभु का दर्शनकर, स्तुति करते हुए अर्घ्य पादादि से पूजाकर प्रभु पदपस्मों में सादर दंडवत् प्रणाम किया और कहा- प्रभो! राजर्षि नाभि और उनकी पत्नी मेरूदेवी आपके ही समान पुत्र चाहते हैं। श्रीभगवान ‘‘मैं स्वयं महाराज नाभि के यहां अवतरित होऊंगा, क्योंकि मेरे समान तो मैं ही हूं, अन्य कोई नहीं।’ ऐसा कहकर अंतर्धान हो गए। कुछ दिनों के बाद नाभि की परम सौभाग्यशालिनी पत्नी मेरूदेवी की कुक्षि से भगवान् विष्णु के वज्र-अंकुश आदि चिह्नों से युक्त अतुलित गुणनिधान परमतत्व प्रकट हुआ। पुत्र के अत्यंत सुंदर गुणों को देखकर महाराज ने उसका नाम ऋषभ रखा।महाराज नाभि परमप्रभु ऋषभदेव का पुत्रवत् पालन करने लगे। कुछ ही दिनों के अनन्तर ऋषभदेव वयस्क हो गए और महाराज नाभि ने देखा कि संपूर्ण राष्ट्र के नागरिक तथा मंत्री आदि सभी ऋषभदेव को आदर व प्रीति की दृष्टि से देखते हैं, तब उन्होंने ऋषभदेव को राजपद पर अभिषिक्त कर दिया और स्वयं अपनी सती पत्नी मेरूदेवी के साथ गंध मादन पर्वत पर भगवान् नर-नारायण के वासस्थान बद्रिकाश्रम में पहुंचकर भगवान के नर-नारायण रूप की उपासना एवं चिंतन करते हुए समयानुसार उन्हीं के तेज में स्थित हो गए।
श्री शुकदेव जी कहते हैं- राजन् ! शासन का दायित्व स्वीकार कर ऋषभदेव ने मानवोचित कर्तव्य का पालन करना प्रारंभ कर दिया। भगवान् ऋषभदेव के शासनकाल में कोई भी पुरुष अपने लिए किसी से भी अपने प्रभु के प्रति दिन-दिन बढ़ने वाले अनुराग के सिवा और किसी वस्तु की कभी इच्छा नहीं करता था।’’ संपूर्ण प्रजा ऋषभदेव को अत्यधिक प्यार करती एवं श्रीभगवान् की तरह उनका आदर करती थी। यह देखकर शचीपति (इंद्र) के मन में बड़ी ईष्र्या हुई। उन्होंने सोचा - मैं त्रैलोक्यपति हूं, वर्षा के द्वारा सबका भरण-पोषण करता और सबको जीवनदान देता हूं, फिर भी प्रजा मेरे प्रति इतनी श्रद्धा न रखकर धरती के नरेश को परमेश्वर की भांति पूजती है। तब सुरेंद्र ने ईष्र्यावश एक वर्ष तक वर्षा बंद कर दी।
भगवान् ऋषभदेव ने अमरपति की द्वेष वृत्ति एवं अहंकार को जानकर योगबल से सजल-घनों की सृष्टि की। आकाश काले मेघों से आच्छादित हो गया और पृथ्वी पर जल ही जल हो गया। सुरपति का मद उतर गया। उन्होंने भगवान ऋषभदेव के प्रभाव को समझकर उनकी स्तुति की और अपनी पुत्री जयंती का विवाह उनके साथ कर दिया। ऋषभदेव ने लोक मर्यादा की रक्षा के लिए गृहस्थाश्रम धर्म का पालन किया और उनसे सौ पुत्र हुए। उनमें सबसे बड़े सर्वाधिक गुणवान् एवं महायोगी भरत प्रतापी नरेश हुए और उन्हीं के नाम पर ‘भारतवर्ष’ प्रसिद्ध हुआ। राजकुमार भरत से छोटे-नौ राजकुमार भारत वर्ष में पृथक-पृथक् देशों के प्रजापालक नरेश हुए। ये सभी तपस्वी एवं भगवद्भक्त थे। इनसे छोटे नौ राजकुमार बालब्रह्मचारी, भागवत धर्म प्रचारक एवं भगवद् भक्त थे। ये योगी व संन्यासी हो गए। इनसे छोटे महाराज ऋषभदेव के इक्यासी पुत्र वेदज्ञ, देवार्चन और पुण्यकर्मों के कहने से ब्राह्मण हो गए।
एक बार की बात है। महाराज ऋषभदेव भ्रमण करते हुए गंगा-यमुना के मध्य की पुण्य भूमि ब्रह्मावर्त में पहुंचे, जहां के शासक उनके चतुर्थ पुत्र ब्रह्ममावर्त थे। वहां उन्होंने प्रख्यात महर्षियों के साथ अपने अत्यंत विनयी एवं शीलवान् 8 पुत्रों को भी बैठे देखा। इस सुअवसर का लाभ उठाकर भगवान् ऋषभदेव ने अपने पुत्रों के माध्यम से जगत् के लिए अत्यंत कल्याणकर उपदेश दिया। ऋषभदेव ने कहा- ‘पुत्रों! इस मत्र्यलोक में यह मनुष्य शरीर दुखमय विषय भोग प्राप्त करने के लिए ही नहीं है। यह भोग तो विष्ठाभोजी सूकर कूकरादि को भी मिलते ही हैं। इस शरीर से अंतःकरण शुद्धि व अनन्त ब्रह्मानंद की प्राप्ति हेतु दिव्य तप ही करना श्रेयस्कर है। इसी से भगवान् की प्राप्ति सुलभ है।’’
‘‘मनुष्य प्रमादवश कुकर्म में प्रवृत्त होता है, किंतु इससे आत्मा को नश्वर एवं दुःखदायी शरीर प्राप्त होता है। जब तक मनुष्य श्री हरि के चरणों का आश्रय नहीं लेता, उन्हीं का नहीं बन जाता, तब तक उसे जन्म-जरा-मरण से मुक्ति नहीं मिल पाती। पुनः संसार की नश्वरता एवं भगवद्भक्ति का माहात्म्य बताते हुए श्रीऋषभदेव जी ने कहा- जो अपने प्रिय संबंधी को भगवद्भक्ति का उपदेश देकर मृत्यु की फांसी से नहीं छुड़ाता वह गुरु गुरु नहीं है, स्वजन स्वजन नहीं है, पिता-पिता नहीं है, माता-माता नहीं है, इष्टदेव-इष्टदेव नहीं है और पति-पति नहीं है। पुत्रोँ ! तुम संपूर्ण चराचर भूतों को मेरा ही शरीर समझकर शुद्ध बुद्धि से पद-पद पर श्री हरि की सेवा करो यह मेरी सच्ची पूजा है।’’
ज्ञान की सात श्रेणियां जो योग वशिष्ठ रामायण में हैं, उनका ज्ञान दिया, कहा- 1. शुभेच्छा - आत्मकल्याणार्थ सद्गुरु की शरण में जाये व शास्त्रों का अध्ययन व आत्मदर्शन का उपाय करे। 2. सुविचारणा - मन-बुद्धि सुविचार से युक्त हो, कुविचार किसी के प्रति भी न हो। 3. तनुमानसा - श्रवण, मनन, निदिध्यासन के द्वारा शब्दादि विषयों के प्रति अनासक्ति पैदा करना। 4. सत्वात्पत्तिरू समाधि रूप स्थिति को प्राप्त होना। 5. असंसक्तिरू अविद्या तथा इससे संबंधित कार्यों का अभाव होना। 6. पदार्थ भाविनीरू पदार्थों में दृढ़ अप्रतीति होना, यानी मात्र भगवत् दर्शन ही करना। 7. तुर्यगारू ब्रह्म को अखंड व आत्मरूप जानना परम लक्ष्य ज्ञानी पुरुष वस्तु से स्नेह न करे, ना ही संग्रह करे- यह उपदेश पुत्रों का दिया। भक्त पुत्रों के माध्यम से जगत् को उपदेश देकर ऋषभदेव जी ने संकल्प मात्र से ही अपने बड़े पुत्र को राज-पद पर अभिषिक्त कर दिया और स्वयं विरक्त जीवन का आदर्श प्रस्तुत करने के लिए राजधानी से बाहर वन में चले गए।
भगवान् ऋषभदेव सर्वथा ज्ञान स्वरूप थे, किंतु लोकदृष्टि से प्राणियों को शिक्षा देने एवं पारमहंस्य धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए उन्होंने उन्मत्तों का वेष धारण कर लिया। बुद्धि के आगार होने पर भी मूर्खों जैसा उनका आचरण होने लगा। वे किसी के प्रश्न का उत्तर न देकर मूक सा व्यवहार करने लगे। धूल-धूसरित शरीर, जिधर जी में आता-भागने लगते। जहां कोई कुछ दे देता, पेट में डाल लेते पर किसी से मांगते न थे। ऋषभदेव जी सर्वथा दिगंबर होकर विचरण करने लगे। उनकी उच्चतम स्थिति को न समझकर कितने ही दुष्ट उन पर दंड प्रहार कर बैठते। कितने गालियां देते, कितने उन परम पुरूष पर थूक देते और कुछ कंकड़ पत्थर मारते तो कुछ उनके ऊपर मल त्याग भी कर देते। पर शरीर के प्रति अनासक्ति और मैं पन का भाव न होने के कारण ऋषभदेव जी कुछ नहीं बोलते। सर्वथा शांत और मौन रहकर अपनी राह आगे बढ़ जाते।
अब वे अवधूत वृत्ति के अनंतर अजगर-वृत्ति से रहने लगे। उन्हें मनुष्यता का अभिमान विस्मृत हो गया। कोई खाने को दे देता तो खा लेते। पशुओं की तरह पानी पी लेते। लेटे ही लेटे पशुओं की तरह मल-मूत्र का त्याग कर देते। मल को अपने सारे शरीर में पोत लेते, किंतु उनके मल से अत्यंत अलौकिक सुगंध निकलती थी, जो दस-दस योजन तक फैल जाती थी। इस प्रकार मोक्षपति भगवान् ऋषभदेव अनेक प्रकार की योग चर्चाओं का आचरण करते हुए निरंतर आनंदमग्न रहते थे। प्रभु का यह जीवन आचरणीय नहीं, यह तो अवस्था थी। यह स्थिति शास्त्र से परे है।
जब भगवान् ऋषभदेव संसार की असारता का पूर्णतया अनुभव कर जीवन मुक्त अवस्था का आनंद लाभ कर रहे थे, उस समय समस्त सिद्धियों ने उनकी सेवा में उपस्थित होकर उनकी सेवा करनी चाही, परंतु ऋषभदेवजी ने उनका मन से आदर या ग्रहण नहीं किया, वरन् मुस्कुराते हुए वहां से चले जाने की आज्ञा दे दी। सर्वसमर्थ भगवान् ऋषभदेव को सिद्धियों की आवश्यकता भी क्या थी? वे तो सिद्धों के सिद्ध महासिद्ध थे। सिद्धियां तो उनकी चरण-धूलि का स्पर्श प्राप्त करने के लिए लालायित रहतीं, पर वह पुण्यमयी धूलि- सुर-मुनि-वंदित रज उन्हें मिल नहीं पाती। साथ ही साधकों, भक्तों एवं योगाभ्यासियों के सम्मुख उन्हें आदर्श भी उपस्थित करना था।
मन बड़ा ही चंचल होता है, इसे तनिक भी सुविधा देने से पतन के महागर्त में ढकेल देता है। ‘‘काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और भय आदि शत्रुओं का तथा कर्म-बंधन का मूल तो यह मन ही हैय इस पर कोई भी बुद्धिमान कैसे विश्वास कर सकता है।’’ इसी कारण भगवान् ऋषभदेव ने साक्षात् पुराणपुरुष आदिनारायण के अवतार होने पर भी अपने ईश्वरीय प्रभाव को छिपाकर अवधूत का सा, मोक्ष की प्राप्ति कराने वाले पारमहंस्य-धर्म का आचरण किया।
ज्ञानी तो अपनी योग दृष्टि से उन्हें ईश्वरावतार समझते थेय किंतु सामान्य प्राणी उनका परिचय पाने में असमर्थ ही थे। दिगंबर-वेष में भ्रमण करते-करते उन्होंने कुटकाचल के निर्जन वन में प्रवेश किया और पंच भौतिक शरीर को त्याग देने की इच्छा हो आयी। एक दिन सहसा प्रबल झंझावात से घर्षण के कारण वन के बांसों में आग लग गयी और वह आग अपनी लाल-लाल लपटों से संपूर्ण वन को भस्मसात् करने लगी। ऋषभदेव जी भी वहीं विद्यमान थे। उनकी शरीर में तनिक भी आसक्ति व मोह नहीं था, इसी कारण शरीर रक्षा के लिए उन्होंने कोई प्रयत्न नहीं किया, उनकी तो सर्वत्र समबुद्धि थी। अतएव वे चुपचाप बैठे रहे और उनका नश्वर शरीर अग्नि की भयानक ज्वाला में जलकर भस्म हो गया। इस प्रकार शरीर छोड़कर भगवान् ऋषभदेव ने योगियों को देह त्याग की विधि की भी शिक्षा दे दी।