भगवान विष्णु का वामन अवतार- Bhagvan Vishnu Ka Vaman Avatar

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गुरू शुक्राचार्या के तपोबल से असुर पुनः जीवित 

असुर राज बलि इन्द्र के प्रहार से मृत हो चुके थे लेकिन आचार्य शुक्राचार्य ने अपनी संजीवनी विद्या से बलि तथा दूसरे असुरों को भी जीवित एवं स्वस्थ कर दिया। राजा बलि ने आचार्य की कृपा से जीवन प्राप्त किया। वे सच्चे हृदय से आचार्य की सेवा में लग गये और शुक्राचार्य प्रसन्न हुए इसलिए उन्होंने यज्ञ कराया। अग्नि से दिव्य रथ, अक्षय त्रोण, अभेद्य कवच प्रकट हुए। 

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 Bhagwan Vishnu ka Vaman Avatar  

आसुरी सेना अमरावती पर चढ़ दौड़ी। इन्द्र ने देखते ही समझ लिया कि इस बार देवता इस सेना का सामना नही कर सकते। बलि ब्रह्मतेज से पोषित थे। देवगुरु के आदेश से देवता स्वर्ग छोड़कर भाग गये। अमर-धाम को असुरों की राजधानी बनी। शुक्राचार्य ने बलि का इन्द्रत्व स्थिर करने के लिये अश्वमेध यज्ञ कराना प्रारम्भ किया। सौ अश्वमेध करके बलि नियम सम्मत इन्द्र बन जायँगे फिर उन्हें कौन कोई नही हटा सकता।

अहंकार बना पताल-लोक का रास्ता

बलि एक प्रतापी राजा था उसके दादा प्रहलाद ने तपस्या की और अमर राज प्राप्त किया। बलि के पिता विरोचन भी नेक पुरुष थे। बलि बड़ा दानी था कोई भी उसके पास आता तो वह उसे खाली न जाने देता स्वयं को राजा जनक या हरीशचन्द्र कहलाता। उसने अपने राज में यज्ञ किये तथा अत्यंत दान दिया इसके उसे अहंकार हो गया कि मेरे जैसा कौन दानी होगा?।

देवामाता का सौभाग्य पुत्र के रूप में श्रीहरि की प्राप्ति

असुर राज बलि के अत्याचार से देवमाता अदिति अत्यन्त दुखी हुई उन्होंने अपने पति महर्षि कश्यप से इसके समाधान विनम्र प्रार्थना की। देवमाता अदिति ने फाल्गुन के शुक्ल पक्ष में बारह दिन पयोव्रत करके भगवान की आराधना की। प्रभु प्रकट हुए और उन्होंने देवमाता अदिति को वरदान दिया। उन्हीं के गर्भ से भगवान प्रकट हुए और उसी समय वामन ब्रह्मचारी बन गये। महर्षि कश्यप ने ऋषियों के साथ उनका उपनयन संस्कार सम्पन्न किया। भगवान वामन पिता से आज्ञा लेकर बलि के यहाँ चले। नर्मदा के समीप  असुर राज बलि अश्वमेघयज्ञ कर रहे थे।

वामन ब्रह्मचारी

अग्नि के समान तेजस्वी वामन ब्रह्मचारी असुर राज बलि के यज्ञ में पहुँचे यह देखकर सभी खड़े हुए। बलि ने उनके चरण धोये और पूजन किया इससे प्रसन्न होकर वामन ब्रह्मचारी से कहा जो आपकी इच्छा हो उसे प्राप्त कर सकते हो। वामन ब्रह्मचारी ने कहा मुझे अपने पैरों से तीन पग भूमि चाहिए। बलि ने बहुत आग्रह किया कि और कुछ माँग लो तब वामन ब्रह्मचारी ने कहा मुझे जो चाहिए था मैंने माँग लिया बस अब और कुछ नही चाहिए। आचार्य शुक्र ने अपनी दिव्य दृष्टि से श्रीहरि को पहचान लिया और असुर राज बलि को सावधान किया कि इनके छल में आने से सर्वस्व चला जायगा।

असुर राज बलि के लिए गुरू शुक्राचार्य का कमण्डल में प्रवेश

जैसे ही असुर राज बलि ने भूमिदान का संकल्प करने लगे तभी गुरू शुक्राचार्य कमण्डल में प्रवेश कर गये। गुरू शुक्राचार्य जानते थे कि श्रीहरि अवश्य ही कुछ अनहोनी करने वाले है। कौन है जो श्री हरि की दृष्टि से बच सके? उन्होंने शीघ्र ही कमण्डल में छिद्र किया वह सीधे गुरू शुक्राचार्य की आँख लगी और तभी से गुरू शुक्राचार्य ने अपनी एक आँख खो दी। जैसे ही पानी की बूँदें बाहर आई असुर राज ने तीन पग भूमि का संकलप लिया। संकल्प के बाद श्रीहरि अपने विराट प्रकट हो गये और उन्होंने एक ही पग में पृथ्वी लोक तथा शरीर से समस्त नभ व्याप्त कर लिया और उनका वाम पद ब्रह्मलोक से ऊपर तक गया। उसके अंगुष्ठ-नख से ब्रह्माण्ड का आवरण तनिक टूट गया। ब्रह्मद्रव वहाँ से ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट हुआ। ब्रह्मा जी ने भगवान का चरण धोये और चरणोदक के साथ उस ब्रह्मद्रव को अपने कमण्डलु में ले लिया। वही ब्रह्मद्रव गंगा बनी। भगवान श्रीहरि को तीसरा पग रखने के लिए कोई स्थान शेष नही रहा। तब श्रीहरि बोले हे असुर राज आपने तीन पग का संकलप किया है अपना संकल्प पूरा करो। भगवान श्रीहरि ने असुर राज बलि को नरक का भय दिखाया अगर संकल्प पूरा नहीं किया गया तो नरक लोक की प्राप्ति होगी। तीसरे पग के लिए बलि ने अपना मस्तक आगे कर दिया। वह बोला- प्रभु सम्पत्ति का स्वामी सम्पत्ति से बड़ा होता है। तीसरा पग मेरे मस्तक पर रख दें। सब कुछ गंवा चुके बलि को अपने वचन से न फिरते देख वामन प्रसन्न हो गए। उन्होंने ऐसा ही किया और बाद में उसे पाताल का अधिपति बना दिया और देवताओं को उनके भय से मुक्ति दिलाई।

असुर राज बलि का पूर्व जन्म का वर्णन

राजा बलि अपने पूर्व जन्म में एक जुआरी के रूप में जन्म लिया। जुए से जो धन मिला उस धन से इन्होंने अपनी प्रिय वेश्या के लिए एक हार खरीदा यह हार लेकर वह अपनेे घर को जानेे लगा लेकिन रास्ते में ही मृत्यु ने उसे घेर लिया। वह मरने ही वाला था सोचा कि अब यह हार वेश्या तक तो नही पहुँचाा पाऊँगा चलो इसे शिव को ही अर्पण कर दूँ। ऐसा सोचकर उसने हार शिव को अर्पण कर दिया और मृत्यु को प्राप्त हुआ। मरकर वह यमराज के समक्ष उपस्थित हुआ। चित्रगुप्त ने उसके कर्मों का लेखा-जोखा देखकर कहा कि इसने तो पाप ही पाप किए है लेकिन मरते समय इसने जुए के पैसे से वेश्या के लिए खरीदा हार कोे शिवार्पण कर दिया है। यही एकमात्र इसका पुण्य है। चित्रगुप्त की बात सुनकर यमराज ने उससे पूछा रे पापी तू ही बता पहले पाप का फल भोगोगे कि पुण्य का। जुआरी ने कहा कि पाप तो बहुत है पहले पुण्य का फल दे दो। उस पुण्य के बदले उसे दो घड़ी के लिए इंद्र बनाया गया। इंद्र बनने पर वह अप्सराओं के नृत्य और सुरापान का आनंद लेने लगा। तभी नारदजी आते है उसे देखकर हँसते है और एक बात बोलते कि अगर इस बात में संदेह हो कि स्वर्ग-नर्क है तब भी सत्कर्म तो कर ही लेना चाहिए वर्ना अगर ये नही हुए तो आस्तिक का कुछ नही बिगड़ेगा पर नास्तिक जरूर मारा जाएगा। यह बात सुनते ही उस जुआरी को होश आ गया। उसने दो घड़ी में ऐरावत, नंदन वन समेत पूरा इन्द्रलोक दान कर दिया। इसके प्रताप से वह पापों से मुक्त होकर इंद्र बना और बाद में राजा बलि हुआ।

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