स्वायम्भुव मनु के दो पुत्र प्रियव्रत और उत्तानपाद इनकी तीन पुत्रियाँ देवहूति, आकूति और प्रसूति थी। देवहूति जी का विवाह कर्दम प्रजापति के साथ हुआ था। ब्रह्माजी ने कर्दम जी को आज्ञा दी कि तुम संतान उत्पत्ति करो तब उन्होंने दस हजार वर्षों तक सरस्वती नदी के तट पर भगवान विष्णु की आराधना करने लगे। भगवान विष्णु प्रकट हो गए उन्होंने भगवान की इस तरह से स्तुति की आज आपका दर्शन पाकर हमें नेत्रों का फल मिल गया। आपके चरणकमल भवसागर से पार जाने के लिये जहाज हैं। जिनकी बुद्धि आपकी माया से मारी गयी है वे ही उन तुच्छ क्षणिक विषय-सुखों के लिये जो नरक में भी मिल सकते हैं उन चरणों का आश्रय लेते हैं। किन्तु आप तो उन्हें वे विषय-भोग भी दे देते हैं।
हे प्रभो! आप कल्पवृक्ष हैं। आपके चरण समस्त मनोरथों को पूर्ण करने वाले हैं। मैं गृहस्थ धर्म के पालन में सहायक शीलवती कन्या से विवाह करने के लिये आपके चरणकमलों की शरण में आया हूँ। भगवान विष्ण ने कहा आपने सच्चे मन से मेरी आराधना की है तुम्हारे हृदय के उस भाव को जानकर मैंने पहले से ही उसकी व्यवस्था कर दी है। स्वायम्भुव मनु अपनी धर्म पत्नी महारानी शतरूपा के साथ तुमसे मिलने के लिये परसों यहाँ आयेंगे। उनकी एक कन्या इस समय विवाह के योग्य है। तुम सर्वथा उसके योग्य हो इसलिए वह तुम्हें अपनी कन्या अर्पण करेंगे। गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए नौ कन्याएँ उत्पन्न होंगी। उसके बाद मैं कपिल रूप में अपने अंश-कलारूप से तुम्हारी पत्नी देवहूति के गर्भ में अवतीर्ण होकर सांख्य शास्त्र की रचना करूँगा। ऐसा कहकर भगवान अपने लोक को चले गए।
श्रीहरि के चले जाने पर कर्दम जी उनके बताये हुए समय की प्रतीक्षा करते हुए बिन्दु-सरोवर पर ही ठहरे रहे। जैसा भगवान ने कहा था वैसा ही हुआ। मनु और शतरूपा जी आये हैं। मनु जी कहते हैं- मैं बड़ी श्रद्धा से आपको यह कन्या समर्पित करता हूँ, आप इसे स्वीकार कीजिये। श्रीकर्दम मुनि ने मनु जी को कहा ठीक है, मैं विवाह करना चाहता हूँ और आपकी कन्या भी हर प्रकार से सुयोग्य है लेकिन मेरी एक शर्त है। जब तक इसके संतान न हो जायगी तब तक मैं गृहस्थ-धर्मानुसार इसके साथ रहूँगा। उसके बाद भगवान् के बताये हुए संन्यास धर्म का पालन करूँगा। मनुजी ने देखा कि इस सम्बन्ध में महारानी शतरूपा और राजकुमारी की स्पष्ट अनुमित है अतः उन्होंने अनके गुणों में सम्पन्न कर्दमजी को उन्हीं के समान गुणवती कन्या का प्रसन्नतापूर्वक दान कर दिया। इन दोनों का सर्वश्रेष्ठ बाह्य विधि से विवाह हुआ।
महारानी शतरूपा ने भी बेटी और दामाद को बड़े प्रेमपूर्वक बहुत से बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण और गृहस्थोचित पात्रादि दहेज में दिये। इस प्रकार सुयोग्य वर को अपनी कन्या देकर महाराज मनु निश्चिन्त हो गये। और वहाँ से प्रस्थान किया। माता-पिता के चले जाने पर पति के अभिप्राय को समझ लेने में कुशल साध्वी देवहूति कर्दमजी की प्रतिदिन प्रेमपूर्वक सेवा करने लगी। ठीक उसी तरह जैसे माँ पार्वती भगवान शिव की सेवा करती हैं। एक दिन कर्दम जी कहते हैं- मनुनन्दिनी! तुमने मेरा बड़ा आदर किया है। मैं तुम्हारी उत्तम सेवा और परम भक्ति से बहुत सन्तुष्ट हूँ। अपने धर्म का पालन करते रहने से मुझे तप, समाधि, उपासना और योग के द्वारा जो भय और शोक से रहित भगवत्प्रसाद-स्वरूप विभूतियाँ प्राप्त हुईं हैं, उन पर मेरी सेवा के प्रभाव से अब तुम्हारा भी अधिकार हो गया है। मैं तुम्हें दिव्य-दृष्टि प्रदान करता हूँ, उसके द्वारा तुम उन्हें देखो। अन्य जितने भी भोग हैं, वे तो भगवान् श्रीहरि के कुटि-विलासमात्र से नष्ट हो जाते हैं अतः वे इनके आगे कुछ भी नहीं है। तुम मेरी सेवा से भी कृतार्थ हो गयी हो। अपने पतिव्रत-धर्म का पालन करने से तुम्हें यह दिव्य भोग प्राप्त हो गये हैं तुम इन्हें भोग सकती हो।
हम राजा हैं, हमें सब कुछ सुलभ है, इस प्रकार जो अभिमान आदि विकार हैं, उनके रहते हुए मनुष्यों को इन दिव्य भोगों की प्राप्ति होनी कठिन है। देवहूति ने कहा स्वामि मैं जानती हूँ की आपको ये सब ऐश्वर्य प्राप्त हैं। किन्तु आपने विवाह के समय जो प्रतिज्ञा की थी कि गर्भाधान होने तक मैं तुम्हारे साथ गृहस्थ-सुख का उपभोग करूँगा उसकी अब पूर्ति होनी चाहिये। क्योंकि श्रेष्ठ पति के द्वारा सन्तान प्राप्त करना पतिव्रता स्त्री के लिये महान् लाभ है। कर्दम मुनि ने अपनी प्रिया की इच्छा पूर्ण करने के लिये उसी समय योग में स्थित होकर एक विमान रचा जो इच्छानुसार सर्वत्र जा सकता था। यह विमान सब प्रकार के इच्छित भोग-सुख प्रदान करने वाला था। ऐसे सुन्दर घर (विमान) को भी जब देवहूति ने बहुत प्रसन्न चित्त से नहीं देखा तो कर्दमजी ने स्वयं कहा तुम इस बिन्दुसरोवर में स्नान करके विमान पर चढ़ जाओ यह विष्णु भगवान् का रचा हुआ तीर्थ मनुष्यों को सभी कामनाओं की प्राप्ति कराने वाला है।
अपने पति की बात मानकर देवहुति जी ने सरस्वती के पवित्र जल में स्नान किया और स्नान करते ही उनकी देह निर्मल और कान्तिमान् हो गई। जब कर्दमजी ने देखा कि देवहूति का शरीर स्नान करने से अत्यन्त निर्मल हो गया है और विवाह काल से पूर्व उसका जैसा रूप था उसी रूप को पाकर वह अपूर्व शोभा से सम्पन्न हो गयी है। तब उस श्रेष्ठ विमान पर दोनों ने सैकड़ों वर्षों तक विहार किया हैं। और जैसा भगवान ने कहा था वैसा ही हुआ। देवहूति के एक ही साथ नौ कन्याएँ पैदा हुए। कन्या होने के बाद कर्दम जी वन की ओर जाने लगे क्योंकि इन्होंने कहा था की संतान उत्पति के बाद मैं सन्यास धारण कर लूंगा।
देवहूति ने कहा आपने जो कुछ प्रतिज्ञा की थी वह सब तो पुर्णतः निभा दी पर भी मैं आपकी शरणागत हूँ, अतः आप मुझे अभयदान और दीजिये। इन कन्याओं के लिये योग्य वर खोजने पड़ेंगे और आपके वन को चले जाने के बाद मेरे जन्म-मरण रूप शोक को दूर करने के लिये भी कोई होना चाहिये। आप कृपा करके मुझे एक पुत्र और प्रदान कीजिये। देवहुति के इस प्रकार कहने पर कर्दम मुनि को भगवान् विष्णु के कथन का स्मरण हो आया और उन्होंने उससे कहा। दोषरहित राजकुमारी! तुम अपने विषय में इस प्रकार का खेद न करो तुम्हारे गर्भ में अविनाशी भगवान् विष्णु शीघ्र ही पधारेंगे। श्रीहरि तुम्हारे गर्भ से अवतीर्ण होकर मेरा यश बढ़ावेंगे और ब्रह्मज्ञान का उपदेश करके तुम्हारे हृदय की अहंकारमयी ग्रन्थि का छेदन करेंगे।
इस प्रकार बहुत समय बीत जाने पर भगवान् ने देवहुति के गर्भ से इस प्रकार प्रकट हुए, जैसे लकड़ी में से अग्नि। हर जगह आनंद ही आनंद छा गया। आकाश से देवताओं ने दिव्य पुष्पों की वर्षा की। ब्रह्माजी को यह मालूम हो गया था कि साक्षात् भगवान् विष्णु सांख्यशास्त्र का उपदेश करने के लिये अपने विशुद्ध सत्वमय अंश से अवतीर्ण हुए हैं। ब्रह्माजी ने कहा कर्दम! तुम दूसरों को मान देने वाले दो। तुमने मेरा सम्मान करते हुए जो मेरी आज्ञा का पालन किया है। बेटा! तुम सभ्य हो, तुम्हारी ये सुन्दरी कन्याएँ अपने वंशों द्वारा इस सृष्टि को अनेक प्रकार से सहायता करेगी। और भगवान विष्णु तुम्हारे पुत्र के रूप में धरा पर आये हैं। वह अविद्याजनित मोह की ग्रन्थियों को काटकर पृथ्वी में स्वच्छन्द विचरेंगे । ये सिद्धगणों के स्वामी और सांख्याचार्यो के भी माननीय होंगे। लोक में तेरी कीर्ति का विस्तार करेंगे और कपिल नाम से विख्यात होंगे। ब्रह्माजी के चले जाने पर कर्दमजी ने उनके आज्ञानुसार मरीचि आदि प्रजापतियों के साथ अपनी कन्याओं का विधिपूर्वक विवाह कर दिया।
कर्दमजी ने देखा कि उनके यहाँ साक्षात् श्रीहरि ने अवतार लिया है तो वे एकान्त में उनके पास गये और उन्हें प्रणाम करके इस प्रकार कहने लगे आप वास्तव में अपने भक्तों का मान बढ़ाने वाले हैं। आपने अपने वचनों को सत्य करने और सांख्ययोग का उपदेश करने के लिये ही मेरे यहाँ अवतार लिया है। आप ऐश्वर्य, वैराग्य, यश, ज्ञान, वीर्य और श्रीकृइन छहों ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं। मैं आपकी शरण में हूँ। आपकी कृपा से मैं तीनों ऋणों से मुक्त हो गया हूँ और मेरे सभी मनोरथ पूर्ण हो चुके हैं। अब मैं संन्यास-मार्ग को ग्रहण कर आपका चिन्तन करते हुए शोक रहित होकर विचरूँगा। आप समस्त प्रजाओं के स्वामी हैं अतः इसके लिये मैं आपकी आज्ञा चाहता हूँ। श्रीभगवान् ने कहाकृमुने! वैदिक और लौकिक सभी कर्मों में संसार के लिये मेरा कथन ही प्रमाण है।
इसलिये मैंने जो तुमसे कहा था कि मैं तुम्हारे यहाँ जन्म लूँगा, उसे सत्य करने के लिये ही मैंने यह अवतार लिया है। मुने! मैं आज्ञा देता हूँ, तुम इच्छानुसार जाओ और अपने सम्पूर्ण कर्म मुझे अर्पण करते हुए दुर्जय मृत्यु को जीतकर मोक्षपद प्राप्त करने के लिये मेरा भजन करो। मैं स्वयंप्रकाश और सम्पूर्ण जीवों के अन्तःकरणों में रहने वाला परमात्मा हूँ। अतः जब तुम विशुद्ध बुद्धि के द्वारा अपने अन्तःकरण में मेरा साक्षात्कार कर लोगे तब सब प्रकार के शोकों से छूटकर निर्भय पद (मोक्ष) प्राप्त कर लोगे। माता देवहूति को भी मैं सम्पूर्ण कर्मों से छुड़ाने वाला आत्मज्ञान प्रदान करूँगा जिससे यह संसार रूप भय से पार हो जायगी। भगवान् कपिल के इस प्रकार कहने पर प्रजापति कर्दमजी उनकी परिक्रमा कर प्रसन्नतापूर्वक वन को चले गये। और सब प्रकार की कामना को छोड़कर मन, बुद्धि और चित को भगवान में लगा दिया और भगवान के धाम को प्राप्त किया।
पिता के वन में चले जाने पर भगवान् कपिलजी माता का प्रिय करने की इच्छा से उस बिन्दुसर तीर्थ में रहने लगे। एक दिन कपिल जी आसान पर विराजमान थे। देवहुति जी कपिल जी के पास गई और बोली- इन दुष्ट इन्द्रियों को मैं विषय देते देते ऊब गई हूँ। इन देह-गेह आदि में मैं-मेरे पन का दुराग्रह होता है, वह भी आपका ही कराया हुआ है अतः अब आप मेरे इस महा-मोह को दूर कीजिये। मैं आपकी शरण में आई हूँ। आप भागवत् धर्म जानने वालों में सबसे श्रेष्ठ हैं, मैं आपको प्रणाम करती हूँ। भगवान् कपिल ने कहा माता! यह मेरा निश्चय है कि अध्यात्मयोग ही मनुष्यों के आत्यन्तिक कल्याण का मुख्य साधन है, जहाँ दुःख और सुख की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है। इस जीव के बन्धन और मोक्ष का कारण मन ही माना गया है। विषयों में आसक्त होने पर वह बन्धन का हेतु होता है और परमात्मा में अनुरक्त होने पर वही मोक्ष का कारण बन जाता है।
जिस समय यह मन मैं और मेरे पन के कारण होने वाले काम-लोभ आदि विकारों से मुक्त एवं शुद्ध हो जाता है, उस समय वह सुख-दुःख से छूटकर सम अवस्था में आ जाता है। मेरी भक्ति के समान और कोई मंगलमय मार्ग नहीं है। जो लोग सहनशीन, दयालु, समस्त देहधारियों के अकारण हेतू, किसी के प्रति भी शत्रुभाव न रखने वाले, शान्त, सरल स्वभाव और सत्पुरुषों का सम्मान करने वाले होते हैं, जो मुझमें अनन्य भाव से सुदृढ़ प्रेम करते हैं, मेरे लिये सम्पूर्ण कर्म तथा अपने सगे-सम्बन्धियों को भी त्याग देते हैं, और मेरे परायण रहकर मेरी पवित्र कथाओं का श्रवण, कीर्तन करते हैं तथा मुझमें ही चित्त लगाये रहते हैं उन भक्तों को संसार के तरह-तरह ताप कोई कष्ट नहीं पहुँचाते हैं। माँ तू सत्संग कर।
सत्पुरुषों के समागम से मेरे पराक्रमों का यथार्थ ज्ञान कराने वाली तथा हृदय और कानों को प्रिय लगने वाली कथाएँ होती हैं। उनका सेवन करने से शीघ्र ही मोक्ष मार्ग में श्रद्धा, प्रेम और भक्ति का क्रमशः विकास होगा। और जो मेरी लीलाओं का चिंतन करेगा मेरी कथा को सुनेगा, उसे सत्य का बोध हो जायेगा फिर अंत में उसे मेरा धाम प्राप्त होगा। भगवान कहते हैं माँ हे संतों का संग कर। तू सत्संग कर। हमारे परिवार में आशक्ति (मोह) होता है। लेकिन जब वही संग या आसक्ति जब संतों-महापुरुषों के प्रति हो जाता है तो मोक्ष का खुला द्वार बन जाता है। कपिल भगवान कहते हैं माँ संसार में तो रहो लेकिन संसार को अपने अंदर मत रहने दो। जैसे पानी में नाव होती है, नाव में पानी नहीं। यदि नाव में पानी होगा तो नाव डूब जाएगी इसी तरह से अगर संसार अंदर रहेगा तो भव पर पाना मुश्किल है। ये शरीर रूपी नोका डूब जाएगी।
फिर माता के पूछने पर कपिल ने अपनी माँ को अहैतुकी भक्ति के बारे में बताया, माता जिसका चित्त एकमात्र भगवान् में ही लग गया है, ऐसे मनुष्य की वेदविहित कर्मों में लगी हुई तथा विषयों का ज्ञान कराने वाली (कर्मेंदिय एवं ज्ञानेद्रिय-दोनों प्रकार की) इन्द्रियों की जो सत्वमूर्ति श्रीहरि के प्रति स्वाभाविकी प्रवृत्ति है, वही भगवान् की अहैतुकी भक्ति है। यह मुक्ति से भी बढ़कर हैय क्योंकि जठरानल जिस प्रकार खाये हुए अन्न को पचाता है, उसी प्रकार यह भी कर्मसंसारों के भण्डार रूप लिंगशरीर को तत्काल भस्म कर देती है। कपिल भगवान कहते हैं- माताजी! जो लोग इहलोक, परलोक और इन दोनों लोकों में साथ जाने वाले वासनामय लिंग देह को तथा शरीर से सम्बन्ध रखने वाले जो धन, पशु एवं गृह आदि पदार्थ हैं, उन सबको और अन्यान्य संग्रहों को भी छोड़कर अनन्य भक्ति से सब प्रकार मेरा ही भजन करते हैं उन्हें मैं मृत्युरूप संसार-सागर से पार कर देता हूँ।
मैं साक्षात् भगवान् हूँ, प्रकृति और पुरुष का भी प्रभु हूँ तथा समस्त प्राणियों का आत्मा हूँ मेरे सिवा और किसी का आश्रय लेने से मृत्यु रूप महाभय से छुटकारा नहीं मिल सकता। आगे कपिल भगवान जी बताते है ध्यान किस प्रकार करना चाहिए। जब भगवान का ध्यान करें तो चरणों से प्रराम्भ करके शिख तक जाये। और भगवान के एक एक अंग का ध्यान करें लेकिन जब जब शक्ति (माँ दुर्गा, पार्वती जी या सीता जी तो) का ध्यान करें तो शिख से शुरू करके चरणों तक ध्यान करें। फिर भगवान ने मुक्ति के बारे में भी विस्तार से बताया है। श्रीकपिलदेवजी कहते हैं माताजी! जिस प्रकार वायु के द्वारा उड़ाया जाने वाला मेघ समूह उसके बल को नहीं जानता, उसी प्रकार यह जीव भी बलवान् काल की प्रेरणा से भिन्न-भिन्न अवस्थाओं तथा योनियों में भ्रमण करता रहता है, किन्तु उसके प्रबल पराक्रम को नहीं जानता।
जीव सुख की अभिलाषा से जिस-जिस वस्तु को बड़े कष्ट से प्राप्त करता है, उसी को भगवान् काल विनष्ट कर देता है जिसके लिये उसे बड़ा शोक होता है। इसका कारण यही है कि यह मन्दमति जीव अपने इस नाशवान् शरीर तथा उसके सम्बन्धियों के घर, खेत और धन आदि को मोहवश नित्य मान लेता है। ये सब माया के कारण होता है। जबकि सब एक दिन खत्म होने वाला है। फिर भगवान ने बताया की एक दिन इस जीव का परिवार और स्वयं की चिंता करते-करते अंत हो जाता है। फिर जीव जैसा कर्म करता है वैसा ही उसे फल मिल जाता है। अच्छे कर्म किये होंगे तो स्वर्ग मिलेगा बुरे कर्म करने पर नरक मिलता है। माँ यदि जीव अपना कल्याण चाहे तो मुझमे ही चित लगाए रखे संसार में न लगाए। फिर भगवान ने काल के स्वरूप का देवहुति जी को वर्णन किया है।
माँ जो ज्ञान मैंने तुम्हें दिया है जो पुरुष मुझमें चित्त लगाकर इसका श्रद्धापूर्वक एक बार भी श्रवण या कथन करेगा, वह मेरे परमपद को प्राप्त होगा। इस प्रकार श्रीकपिल भगवान् के यह वचन सुनकर कर्दमजी की प्रिय पत्नी माता देवहूति के मोह का पर्दा फट गया और इन्होंने भगवान की सुंदर स्तुति की है। देवहुति कहती हैं- कपिलजी! ब्रह्माजी आपके ही नाभिकमल से प्रकट हुए थे। जिन्होंने आपका ध्यान ही किया था। नाथ! यह कैसी विचित्र बात है कि जिनके उदर में प्रलयकाल आने पर यह सारा प्रपंच लीन हो जाता है और जो कल्पान्त में मायामय बालक का रूप धारण कर अपने चरण का अँगूठा चूसते हुए अकेले ही वट वृक्ष के पत्ते पर शयन करते हैं, उन्हीं आपको मैंने गर्भ में धारण किया। आपने जिस प्रकार वराह अवतार धारण किया था और कपिलावतार मुमुक्षुओं को ज्ञान मार्ग दिखाने के लिए हुआ है।
कपिलदेवजी! आप साक्षात् परह्म हैं, आप ही परम पुरुष हैं, वृत्तियों के प्रवाह को अन्तर्मुख करके अन्तःकरण में आपका ही चिन्तन किया जाता है। मैं आपको प्रणाम करती हूँ। कपिलदेवजी ने कहा माताजी! मैंने तुम्हें जो यह सुगम मार्ग बताया है, इसका अवलम्बन करने से तुम शीघ्र ही परमपद प्राप्त कर लोगी। इस प्रकार श्रेष्ठ आत्मज्ञान का उपदेश देकर श्रीकपिलदेवजी अपनी माँ की अनुमति लेकर वहाँ से चले गये। तब देवहूतिजी भी सरस्वती के मुकुट सदृश अपने आश्रम में अपने पुत्र के उपदेश किये हुए योग साधन के द्वारा योगाभ्यास करती हुई समाधि में स्थित हो गयीं। जिस स्थान पर उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई थी, वह परम पवित्र क्षेत्र त्रिलोकी में ‘सिद्धपद’ नाम से विख्यात हुआ। योग-साधन के द्वारा उनके शरीर के सारे दैहिक मल दूर हो गये थे। वह एक नदी के रूप में परिणत हो गया, जो सिद्धगण से सेवित और सब प्रकार कि सिद्धि देने वाली है। इस प्रकार कपिल और देवहुति जी का ज्ञान-भक्ति और वैराग्य से परिपूर्ण चरित्र पूरा हुआ।
भगवान विष्णु के अवतार-Bhagwan Vishnu ke Avatars