नरसिंह अवतार भगवान विष्णु के दस अवतारों में से एक है। जब-जब अर्धम चरम सीमा पहुचाँ तब-तब भगवान विष्णु अवतरित हुये। महर्षि कश्यप की दूसरी पत्नी दिति ने हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप जुड़वां पुत्रों को जन्म दिया। इसके जन्म से पृथ्वी कांप उठी, आकाश में नक्षत्र और दूसरे लोक इधर से उधर दौड़ने लगे, समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें पैदा हो उठीं और प्रलयंकारी हवा चलने लगी। ऐसा ज्ञात हुआ मानो प्रलय आ गई हो। हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप दोनों पैदा होते ही बड़े हो गए। यद्यपि हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप दोनों बलवान थे परन्तु वह संसार में अजेयता और अमरता प्राप्त करना चाहते थे। हिरण्याक्ष नामक महादैत्य पाताल में निवास करता था। वह महान तपस्वी दैत्य एक बार पृथ्वी को लेकर पाताल में चला गया।
जब भगवान् विष्णु की योग निद्रा टूटी तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि पृथ्वी कहाँ है। योग बल से देखा तो आश्चर्य चकित हो गये यह दैत्य तो पृथ्वी को लेकर रसातल में चला गया है। फिर पृथ्वी के उद्धार के लिए नारायण ने दिव्य वराह शरीर धारण किया और हिरण्याक्ष का वध करके पृथ्वी को पुनः स्थापित किया। अपने भाई के वध का बदला लेने के लिए दूसरे भाई हिरण्यकश्यप ने जल में निवास करते हुए निराहार और मौन रहते हुए ग्यारह हजार वर्षो तक घोर तपस्या की। इस अवधि में उनकी तपस्या में यम-नियम, शांति, इन्द्रिय निग्रह और ब्रह्मचर्य से संतुष्ट हो भगवान ब्रह्मा वरदान देने के लिए उपस्थित हुए और मनोवांछित वर मांगने को कहा। फिर हिरण्यकश्यप ने कहा-यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे अमरता का वरदान दें। इसके अलावा दूसरा वर माँगने को कहा। दैत्य ने कहा कि यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे ऐसा वरदान दें जिसके प्रभाव से देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, सर्प, राक्षस, मनुष्य, पिशाच ये सब मुझे मार न सकें और न अस्त्र से न शस्त्र से, न पर्वत से, न वृक्ष से, न किसी सूखे या गीले पदार्थ से, न दिन में, न रात में। कभी भी मेरी मृत्यु न हो।
इस प्रकार के अनेक वरदान प्राप्त कर इस दैत्य ने अत्याचार कर स्वर्गलोक पर नियन्त्रण कर लिया। उसके भय से सभी अपना वेश बदल कर पृथ्वी पर विचरने लगे। देवताओं की चिंता देख देवगुरु बृहस्पति ने सलाह दी कि सभी देव क्षीरसागर तट पर जाकर भगवान विष्णु से प्रार्थना करें। भगवान विष्णु ने सबको इस समस्या से मुक्ति दिलाने का आश्वासन देते हुए हिरण्यकश्यप के वध का संकल्प लिया। अपनी माया से उसकी पत्नी कयाधू के गर्भ में स्थित पुत्र को देवऋषि नारद द्वारा ओम नमो नारायणायः के मन्त्र श्रवण करा कर गर्भ में ही शिशु को नारायण भक्त बना दिया, जो जन्म लेने के समय से ही विष्णु भक्त प्रहलाद के नाम से विख्यात हुआ। अपने ही पुत्र को ओम नमो नारायणायः का जप करते देख पिता हिरण्यकश्यप अति क्रोधित हुआ।
प्रहलाद को विष्णु भक्ति त्यागने के लिए बहुत समझाया और फिर बहुत यातनाएं देने लगा, परन्तु प्रहलाद अपने मार्ग से विचलित नहीं हुआ। फिर उसने प्रहलाद को समुद्र में फिकवा दिया, जहां बालक प्रहलाद को विष्णु के दर्शन हुए। मृत्यु हेतु तरह-तरह के वध के षड्यंत्रों से प्रहलाद के बच जाने के कारण सभी दैत्य आश्चर्यचकित रह जाते। अंतः जब स्वयं वह अपने पुत्र भक्तिअवतार प्रहलाद को चंद्रहास तलवार से मारने दौड़ा तो क्रोधातुर होकर चिल्लाया, अरे मूर्ख! कहां है तेरा विष्णु? कहां है तेरा विष्णु? बोल तुझे बचा ले। तू कहता है कि वो सर्वत्र है तो दिखाई क्यों नहीं देता। पास के खम्भे की ओर इशारा करते हुए बोला कि क्या इस खम्भे में भी तेरा विष्णु है? पिता के द्वारा ऐसी बातें सुन कर प्रहलाद ने परमेश्वर का ध्यान किया और कहा कि हाँ पिता जी इस खम्भे में भी विष्णु हैं।
उस दैत्य ने कहा, मैं इस खम्भे को काट देता हूँ जैसे ही हिरण्यकशिपु ने खम्भे पर तलवार चलायी भगवान् विष्णु नरसिंह अवतार के रूप में प्रकट हो गए। इनमें संसार की समस्त शक्तियों का दर्शन हो रहा था। प्रभु ने पलभर में दैत्यसेना का संहार कर दिया। नारायण के आधे मनुष्य और आधा सिंह शरीर देख कर असुरों में खर, मकर, सर्प, गिद्ध, काक, मुर्गे और मृग जैसे मुख वाले राक्षस अपनी योनियों से मुक्ति पाने के लिए प्रभु के हाथों मरने के लिए आगे आ गये और वधोपरांत राक्षस योनि से मुक्त हो गए। अंत मे भगवान नरसिंह ने ब्रह्मा जी के वरदान का मान रखते हुए सायंकालीन में अपनी जंघा पर रख कर बिना किसी हथियार के अपने नाखूनों से चीर कर हिरण्यकश्यप का वध किया। हर वैसाख मास में शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को श्री नृसिंह जयंती के रूप में मनाया जाता है। भगवान नरसिंह की पूजा से ज्ञान की प्राप्ति के साथ-साथ कोई बुरी शक्तियाँ दूर होती है। जीवन में किसी तरह का कोई भय नहीं रहता।