त्रिदेवों का साक्षत् रूप दत्तात्रेय - Bhagwan Dattatreya

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त्रिदेवों का साक्षत् रूप दत्तात्रेय
(Bhagwan Dattatreya) 

तीनों देवो ने साधु वेश में महर्षि अत्रि के आश्रम पर पहुँचे उस समय पतिव्रता अनुसूया आश्रम पर अकेली थी। साधु के वेश में तीन अतिथियों को द्वार पर देखकर पतिव्रता अनुसूया ने भोजन ग्रहण करने का आग्रह किया। तीनों साधुओं ने कहा कि हम आपके यहाँ भोजन अवश्य ग्रहण करेंगे। परंतु एक शर्त पर कि अगर आप हमे निवस्त्र होकर भोजन कराओगी। पतिव्रता अनुसूया ने साधुओं के शाप के भय से तथा अतिथि सेवा से वंचित रहने के पाप के भय से उन्होंने मन ही मन महर्षि अत्रि का स्मरण किया। दिव्य शक्ति से उन्होंने जाना कि यह तो त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश है। मुस्कुराते हुए माता अनुसूया बोली जैसी आपकी इच्छा। पतिव्रता अनुसूया ने परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना की कि हे परमेश्वर ! इन तीनों को छः-छः महीने के बच्चे की आयु के शिशु बनाओ। जिससे मेरा पतिव्रत धर्म भी खंडित न हो तथा साधुओं को आहार भी प्राप्त हो व अतिथि सेवा न करने का पाप भी न लगे।

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परमेश्वर की कृपा से तीनों देवता छः-छः महीने के बच्चे बन गए तथा पतिव्रता अनुसूया ने तीनों को निःवस्त्र होकर दूध पिलाया तथा पालने में लेटा दिया। बहुत दिनों तक जब तीनों देव अपने-अपने स्थान पर न देखकर तीनों देवियाँ व्याकुल हो गईं। नारद जी ने वहाँ आकर सारी बात बताई की तीनो देवो को तो पतिव्रता अनुसूया ने अपने सतीत्व से बालक बना दिया है। यह सुनकर तीनों देवियांँ ने महर्षि अत्रि के आश्रम पर पहुँचकर पतिव्रता अनुसूया से माफी मांगी और कहाँ की हमसे ईर्ष्यावश यह गलती हुई है। 

कृप्या आप इन्हें पुनः उसी अवस्था में कीजिए। इतना सुनकर महर्षि अत्रि की पत्नी पतिव्रता अनुसूया ने तीनो बालक को वापस उनके वास्तविक रूप में कर दिया। महर्षि अत्रि व पतिव्रता अनुसूया से तीनों देवों ने वर माँगने को कहा। तब पतिव्रता अनुसूया ने कहा कि आप तीनों हमारे घर बालक बन कर पुत्र रूप में आएँ। हम निःसंतान है। तीनों भगवानों ने तथास्तु कहा तथा अपनी-अपनी  पत्नियों के साथ अपने-अपने लोक को प्रस्थान कर गए। कालान्तर में दत्तात्रेय रूप में भगवान विष्णु, चन्द्रमा के रूप में ब्रह्मा और दुर्वासा के रूप में भगवान शिव का जन्म पतिव्रता अनुसूया के गर्भ से हुआ। 

भगवान दत्तात्रेय के अवतार (Bhagwan Dattatreya  ke Avatar)

ऐतिहासिक युग में दत्त देवता के तीन अवतार श्रीपाद श्रीवल्लभ, श्री नृसिंहसरस्वती और मणिकप्रभु हुए। श्रीपाद श्रीवल्लभ भगवान दत्तात्रेय के पहले अवतार थे। श्री नृसिंह सरस्वती उनके दूसरे और मणिकप्रभु तीसरे अवतार थे। चैथे अवतार श्री स्वामी समर्थ थे। यह चार पूर्ण अवतार हैं और इनके अतिरिक्त कई आंशिक अवतार भी हैं। श्री वासुदेवानंद सरस्वती (टेम्बेस्वामी) उनमें से एक हैं। जैन नेमिनाथ के रूप में दत्तात्रेय की पूजा करते हैं। प्रसिद्ध विद्वान एवं भविष्यवक्ता श्री बापन्नाचार्य जो बाद में श्रीपाद श्रीवल्लभ के नाना प्रसिद्ध हुए। इनकी दो सन्तानें थी एक पुत्र और पुत्री सुमति को उसकी महारानी जैसी चाल के कारण बचपन से ही सुमति महारानी कहा जाता था। यहां कई विद्यार्थी वेदों की शिक्षा ग्रहण करने के लिए आते थे। ऐसे ही एक विद्यार्थी थे अप्पलराज उनके माता-पिता की मृत्यु बचपन में ही हो गई थी इनके यहँं एक दत्त मूर्ति थी जिसे कालाग्नी दत्त कहा जाता था। 

पूजा होने के उपरांत वह मूर्ति अप्पलराज से बात करती थी। उस मूर्ति की आज्ञा से अप्पलराज वेदों की शिक्षा ग्रहण करने के लिए श्री बापन्नाचार्य के यहाँ आए। उस समय बापन्नाचार्य ने उनके रहने-खाने व्यवस्था की थी। अप्पलराज बहुत बुद्धिमान और स्वाभिमानी थे। बापन्नाचार्य के यहाँ शिव आराधना होती थी। एक बार शिव पूजा के लिए वहाँ के प्रसिद्ध कुक्कुटेश्वर शिवलिंग मंदिर में जाने पर लिंग से देववाणी हुई कि बापन्नाचार्य को अप्पलराज एवं सुमति का विवाह कर देना चाहिए। देववाणी का स्वीकार कर बापन्नाचार्य ने दोनों को विवाहसूत्र में बांध दिया। महालय अमावस्या के दिन दोपहर के समय एक अवधूत ने अप्पलराज के घर ‘‘भवति-भिक्षां देही’’ की पुकार लगाई। 

भिक्षा देने के बाद उसने सुमति से कुछ माँगने को कहा। सुमति ने कहा कि मैं चाहती हूंँ कि भगवान दत्तात्रेय मेरे गर्भ से अवतार लें। वास्तव में वे अवधूत और कोई नहीं भगवान दत्तात्रेय ही थे। उन्होंने प्रसन्न होकर कहा कि मेरा श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में अवतार तुम्हारे गर्भ से ही होगा। भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी (सन १३२०) को सूर्योदय के समय भगवान श्रीपाद श्रीवल्लभ का जन्म हुआ। उनके जन्म के नौ दिन बाद तक उन्हें जहाँ सुलाया जाता था वहाँ तीन फन का एक नाग अपने फन फैलाकर उनकी रक्षा करता था। माता के गर्भ से श्रीपाद का जन्म साधारण बालक के समान न होकर ज्योतिस्वरूप हुआ था। उस समय प्रसूति गृह में मंगल वाद्यों की ध्वनि सुनाई दी थी। पवित्र वेद मंत्रों का घोष बाहर सब को सुनाई दे रहा था। 

श्री बापन्नाचार्य को भी इस अद्भुत घटना से आश्चर्य हुआ। श्रीपाद श्रीवल्लभ ने कुल ३० वर्ष तक अवतार कार्य किया। पहले १४ वर्ष पीठापुर में एवं बाद के १६ वर्ष कर्नाटक में कृष्णा नदी में स्थित टापू कुरवपुर (कुरुगड्डी) में। मानव रूप में अवतार लेने पर भी श्रीपाद श्रीवल्लभ को कुछ चमत्कार करने पड़े जिससे समाज में उनकी मान्यता हुई। उनके कार्यों में पाखंड़ी साधु दंडीस्वामी का गर्वहरण, वेलप्रभु महाराज का गर्वहरण, रीछ से भक्तों का रक्षण, घमंडी पहलवान को अशक्त व्यक्ति से हरवा कर उसका गर्वहरण, एक साथ तीन जगह प्रगट होकर भक्तों को दर्शन, महाकारी का निर्मूलन, शिवय्या नामक सेवक की ब्रह्मराक्षस के पंजों से मुक्ति आदि हैं। भगवान श्री दत्तात्रेय ने श्रीपाद् श्रीवल्लभ अवतार में तीस वर्ष अवतार कार्य करने के उपरांत अवतार कार्य समाप्त कर गुप्त होने का संकल्प लिया। 

भक्तों को यह बताकर कि मैं नरदेह से भले ही गुप्त हो रहा हूं, परंतु रहूंगा आपके ही बीच वे कृष्णा नदी में गुप्त हो गए। वहाँ से वह श्री शैल्य पर्वत पर प्रकट हुए एवं उसके बाद कदलीवन में जाते दिखे एवं फिर अदृश्य हो गए। उन्होंने अवतार समाप्ति के पूर्व भक्तों को बताया था कि कुछ काल पश्चात् वे कारंजा (महाराष्ट्र) में नृसिंह सरस्वती के नाम से अवतार लेंगे। कुछ वर्षों के पश्चात् माधव-अंबा नामक दंपति के यहां एक बालक ने जन्म लिया। जन्म लेते ही बालक ने ओम का उच्चारण किया। उम्र में बालक बड़ा होता गया परंतु वह कुछ भी नहीं बोलता था केवल ओम का उच्चारण ही करता था। सभी लोग आश्चर्यचकित थे। सदा हंसते रहने वाला यह बालक न कुछ मांगता था और न ही रोता था। सात वर्ष का होने पर भी वह नहीं बोला। सबकी बातें समझता था परंतु पूछने पर ओम का ही उच्चारण करता था। माता-पिता को चिंता हुई उन्होंने बालक से ही पूछा तो उसने इशारे से बताया कि मेरा उपनयन संस्कार करिये, तब मैं बोलूंगा। नृसिंह सरस्वती नामक इस बालक का जैसे ही ८ वर्ष की आयु में उपनयन संस्कार किया गया वह चारों वेद बोलने लगा। 

सभी को यह देख-सुनकर अतीव आश्चर्य हुआ। जैसे-जैसे वह बड़ा होने लगा उसकी कीर्ति चारों ओर फैलने लगी। सज्जनों, गरीबों, दुःखी प्राणियों के उद्धार में उसका समय व्यतीत होने लगा। माता-पिता की आज्ञा लेकर बालवय में ही वह तीर्थाटन हेतु निकल पड़ा। हिमालय में जाकर तप किया। वहाँ से पुनः तीर्थयात्रा करते हुए उसने कुछ समय महाराष्ट्र में कृष्णा नदी के किनारे औदुंबर (किलवडी) में वास्तव्य किया। चार मास वहाँ रहकर एवं वहाँ अपनी पादुका स्थापित कर उसने स्थानीय लोगों के दुःख दूर किए। एक ब्राह्मण का पुराना पेटदर्द दूर करना, साचदेव नामक भक्त को अभयदान देना, माधव नामक ब्राह्मण को ब्रह्मज्ञान देना, भक्तों को मोक्ष प्राप्ति के लिए धर्माचरण हेतु प्रेरित करना इत्यादि देवत्व का प्रमाण हैं।

भिलवड़ी से प्रयाण कर १२ वर्ष तक वे कृष्णा नदी के तीर पर स्थित अमरापुर ग्राम में जो अब नृसिंहवाडी या वाड़ी इस नाम से प्रसिद्ध है। वहांँ पर रोज कृष्णा नदी के दो भाग होकर जलदेवता परिवार सहित बाहर आकर उनकी पूजा करते थे। यह अद्भुत दृश्य एक भक्त ने अपनी आंखों से देखा था। वहाँ पर भी उन्होंने अपनी पादुकाएं  स्थापित की। आज भी नृसिंहवाड़ी एक जागृत देवस्थान के रूप में प्रसिद्ध है। वहाँ जाने वाले भक्तों के मनोरथ आज भी पूर्ण होते हैं। नृसिंहवाड़ी से प्रयाण कर श्री नृसिंह सरस्वती गाणगापुर (कर्नाटक) में आए एवं अवतार कार्य समाप्त होने तक वहीं रहे। भीमा एवं अमरजा नदी के संगम स्थल के पास स्थित गाणगापुर आज भी दत्तभक्तों का तीर्थक्षेत्र है। यहाँ पर उन्होंने कई लीलाएं की। सभी जाति-वर्ण के लोग उनके भक्त-अनुयाई थे। तीन लोगों के भोजन करने लायक अनाज में चार सहस्त्र लोगों को भोजन कराना, बांझ भैंस का दूध निकालना, दरिद्र ब्राह्मण को सोने की मोहरों से भरा घडा प्राप्त करवाना, बुनकर भक्त को शिवरात्रि के दिन ही श्री शैल्य पर्वत का दर्शन कराना इत्यादि जैसी कई लीलाएं उन पर लिखित ग्रंथ गुरुचरित्र में वर्णित हैं।

अपनी मूल पादुकाओं को वहांँ भक्तों को भेंट देकर एवं उनको वहाँ स्थापित कर उन्होंने गाणगापुर से श्री शैल्य पर्वत हेतु प्रयाण किया। यहांँ से कृष्णा नदी से होते हुए वे कर्दलीवन में अदृश्य हो गए। प्रथम अवतार श्रीपाद श्रीवल्लभ रुप में ही भगवान दत्तात्रेय ने अपने होने वाले अन्य दोनों अवतारों की भविष्यवाणी की थी। उसके अनुसार अपने तीसरे अवतार श्री स्वामी समर्थ के रूप में वे प्रकट हुए। कर्दलीवन में समाधि के दौरान उनके चारों ओर दीमक ने अपनी बॉंबी बना ली थी। जंगल में लकड़ी तोड़ने आए एक लकड़हारे की कुल्हाड़ी लगने से उसमें से खून बहने लगा। लकड़हारा घबरा गया। उसी समय उसमें से स्वामी समर्थ का अवतार प्रगट हुआ। 

श्री स्वामी समर्थ लीलामृत नामक ग्रंथ में हिमालय की एक कथा के बारे में है। हिरण के बच्चे को मारने के लिए एक शिकारी उसके पीछे दौड़ रहा था। हिरण के बच्चे ने भाग कर वहाँ तपस्या कर रहे एक यति की शरण ली। वे यति और कोई नहीं स्वामी समर्थ ही थे। श्री स्वामी समर्थ अक्कलकोट में सन १८५७ के प्रारंभ में आए। वे पहले मंगलवेढ़ा (महाराष्ट्र) नामक स्थान पर प्रसिद्ध हुए। वहाँ से वे सोलापुर आए। बाद में उनका आगमन अक्कलकोट में हुआ। सूदूर काशी, रामेश्वर से भी हजारों लोग उनके दर्शन हेतु आए तथा पुनीत हो गए। उनका प्रत्येक शब्द व प्रत्येक कृति चमत्कारिक थी। रोज सैकड़ों चमत्कार होते थे। एक बार किसी भक्त के पूछने पर उन्होंने अपना नाम ‘‘नृसिंहभान’’ बताया था एवं कहा था कि आगे से उनसे यह न पूछा जाए। अक्कलकोट में ही श्री स्वामी समर्थ समाधि में लीन हो गये थे।