भगवान विष्णु के अवतार सनक-सनंदन-सनातन और सनतकुमार

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भगवान विष्णु के अवतार सनक-सनंदन-सनातन और सनतकुमार

ब्रह्मा जी भगवान विष्णु के नाभि से उत्पन्न हुए और उन्होंने उस समय संपूर्ण जगत को जलमग्न देखा। तब वह सोचने लगे उन्हें किसने जन्म दिया और उनके जन्म का क्या उद्देश्य है। ऐसी स्थिति में ब्रह्मा जी ने कई वर्षों तक तपस्या की तब भगवान विष्णु ने उन्हें दर्शन दिये। जल प्रलय के कारण संपूर्ण जगत में नाश हुए समस्त प्रजा और तत्वों को पुनः उत्पन्न करने हेतु ब्रह्मा जी को निर्देश दिया। ब्रह्मा जी ने कई वर्षों तक तपस्या की उन्होंने चैदह लोकों की रचना की। उन्होंने सप्त प्राकृतिक सर्ग तथा तीन वैकृतिक सर्ग को उत्पन्न किया। इन सर्गों की उत्पत्ति के पश्चात भी ब्रह्मा जी को संतुष्टि नहीं मिली। ब्रह्मा जीे ने मन ही मन भगवान विष्णु का ध्यान किया।

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भगवान विष्णु ने ही इन चारों सनक, सनंदन, सनातन और सनतकुमार के रूप में अवतार लिया। इन चारों को सनकादि मुनि के नाम से जाना जाता है। यह ब्रह्मा जी के प्रथम मानस पुत्र थे। यह सभी सर्वदा पाँच वर्ष आयु के ही रहे। इन चारों को उत्पन्न कर ब्रह्मा जी ने इन्हें प्रजा विस्तार के निर्देश दिये लेकिन इन ऋषि कुमारों ने अपने पिता ब्रह्मा जी को इस कार्य के लिए माना कर दिया। उनके अनुसार भगवान विष्णु की आराधना से अधिक और कोई कार्य उनके लिए उपयुक्त नहीं था। उन्होंने नारायण की उपासना को ही सर्वाधिक महत्त्व वाला माना और वहाँ से चले गए। चारों जहाँ भी जाते भगवान विष्णु का भजन करते उनके भजन-कीर्तन में ध्यानस्थ रहते थे। वे सर्वदा उदासीन भाव से युक्त होकर भजन साधन में मग्न रहते थे। 

इन्हीं चारों कुमारों से उदासीन भक्ति, ज्ञान तथा विवेक का मार्ग शुरू हुआ जो आज तक उदासीन अखाड़ा के नाम जाना जाता है। चारों भाई एक साथ रहते एक साथ ही ब्रह्मांड में विचरण करते और सभी ने एक साथ ही वेद शास्त्रों का अध्ययन किया। सनकादि ऋषियों ने भगवान विष्णु के हंसावतार से ब्रह्मज्ञान की शिक्षा ग्रहण करके प्रथम उपदेश अपने शिष्य देवर्षि नारद को दिया था। वास्तव में यह चारों ऋषि ही चारों वेदों के समान माने गए चारों वेद इन्हीं का स्वरूप है। प्रलयकाल के समय जो वेद शास्त्र लीन हो गए थे इन चार कुमारों भगवान विष्णु के हंसावतार में पुनः प्राप्त किया। एक बार सनकादि ऋषि भगवान विष्णु से मिलने वैकुण्ठ धाम पहुँचे वहाँ के मनोरम सौन्दर्य ने उन्हें प्रसन्न कर दिया। 

कुमारों ने छठवें द्वार मण्डप को पार कर जैसे ही सातवें द्वार मण्डप पर पहुँचे। जय और विजय नाम के दो द्वारपालों ने उन्हें रोक दिया। इस पर सनकादि ऋषियों को क्रोध आ गया चारों ज्ञानी थे इसके साथ भी उन्हें क्रोध आना यह भगवान विष्णु के कारण हुआ। सनकादि ऋषियों ने जय तथा विजय से कहा- वैकुण्ठ के द्वारपाल के बाद भी तुम्हारा विषम स्वभाव नहीं गया है, सर्पों के सामान हो, यहाँ निवास करने योग्य नहीं हो, अभी तुम्हारा पतन हो जायें। तभी वहाँ भगवान विष्णु पहुँच गये उन्होंने विनम्रतापूर्ण सनकादि ऋषियों को प्रणाम किया।

भगवान विष्णु ने ब्राह्मण सर्वदा ही हमारे आराध्य है और रहेंगे, इन द्वारपालों ने बढ़ा अपराध किया है जो कि क्षमा योग्य नही है। परन्तु मैं इनकी तरफ से क्षमा माँगता हूँ आप ने इन्हें जो दण्ड दिया है इन्हें यह मिलना ही चाहिए था। जय-विजय को तीन जन्मों तक राक्षस योनि में जन्म लेने का श्राप मिला। इसके साथ-साथ ही भगवान विष्णु के द्वारा ही हर जन्म में तुम्हारा उद्धार होगा। श्राप के अनुसार दोनों प्रथम जन्म में हिरण्याक्ष-हिरण्यकश्प, द्वितीय में रावण-कुम्भकर्ण, तृतीय जन्म में शिशुपाल-दन्तवक्र के रूप में जन्म लेने के बाद भगवान विष्णु द्वारा उद्धार हुआ। 

सनकादि मुनियों ने प्रथम उपदेश देवर्षि नारद जी को दिया

सनकादि मुनियों से श्रीमदभागवत् कथा की महिमा सुनकर नारद जी अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होने सनकादि से कहा- मैं श्रीमदभागवत् का ज्ञान यज्ञ आवश्य प्राप्त करुँगा कृप्या मुझे यह स्पष्ट करें कि उस यज्ञ को किस स्थान पर करना चाहिए आप मुझे उचित स्थान के बारे में स्पष्ट रूप से अवगत कराये। आप लोग वेद के बताएं मार्ग पर चलने वाले है इसलिए यह भी बताएं कि इस कथा को कितने दिन में सुनाना होगा और इसकी विधि के बारे में विस्तार पूर्वक बताएं। सनकादि मुनि नारद जी की बात सुनकर अत्यंन्त प्रसन्न हुए उन्होने कहना प्रारम्भ किया नारद जी करुणा और दया की भावना से प्रेरित होकर प्रश्न कर रहे हैं। आप तसे अत्यन्त विवेकी हैं नारद जी, हरिद्वार नामक क्षेत्र में आनन्द नामक घाट है वहां अनेकों ऋषि निवास करते हैं देवता तथा अनेकों सिद्ध लोग भी उस स्थान पर भ्रमण करते रहते हैं वह क्षेत्र बहुत ही सुन्दर और मनोरम है वहाँ भांति-भांति के वृक्ष और लताएं उस स्थान को मनोरम बना रही हैं, उस स्थान की धरती पर बालू बिछी हुई है जिससे वहाँ की धरती बैठने के लिये बहुत कोमल लगती है वह क्षेत्र पुष्पों की सुगन्ध से महकता रहता है उस क्षेत्र में निवास करने वाले जानवर भी आपस में वैर-भाव नहीं रखते

अतः आप उस स्थान पर श्रीमदभागवत् ज्ञान यज्ञ प्रारम्भ कजिये, भक्ति अपने जीर्ण अवस्था में पड़े पुत्रों ज्ञान और वैराग्य को साथ लेकर वहाँ आ जायेगी। जहाँ भी श्रीमदभागवत् कथा होती है वहाँ भक्ति आदि स्वयं उपस्थित हो जाते है, परमात्म कथा के मधुर शब्द कानों में प्रवेश करते ही परमात्म कृपा के परिणाम स्वरूप मनुष्य की दिशा और दशा दोनों सुन्दर हो जाती है। नारद जी श्रीमदभागवत् कथा श्रवण के उद्देश्य से हरिद्वार पहुँच जाते है तथा सनकादि ऋषि गण भी कथा करने के लिये वहाँ पहुंच है। जैसे ही नारद जी गंगा तट पर पहुंचे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में इसकी सुचना फैल गई, परमात्मा के रसिक भक्त सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड से कथा श्रवण हेतु गंगा के तट पर पहुंचने लगे। गंगा का तटीय क्षेत्र पुण्य क्षेत्र होता है शुद्ध भूमि में सात्विक भाव जाग्रत होते श्रीमदभागवत में इसका वर्णन है

कथा श्रवण के लिये गंगा तट पर भृगु, वसिष्ठ, च्यवन, गौतम, मेधातिथि, देवल, देवरात, परशुराम, विश्वामित्र, शाकल, मार्कण्डेय, दत्तात्रेय, पिप्पलाद, येगेश्वर व्यास, पाराशर, छायाशुक, जाजलि, जह्नु आदि सभी प्रधान ऋषि-मुनिगण अपने अपने पुत्रों, शिष्यों तथा स्त्रियों समेत पहुंचे तथा इसके अलावा समस्त वेद, उपनिषद, मंत्र, तंत्र, सत्रह पुराण और छ्हों शास्त्र सभी मूर्तिमान स्वरूप में कथा श्रवण के लिये गंगा तट पर पधारे। सभी पर्वत, समस्त दिशाएं, सभी तीर्थ आदि भी कथा का श्रवण करने पहुंचे और जो लोग नहीं पहुंचे उन्हे सूचना देने और समझाने के लिये स्वयं भृगु महाराज गये। कथा सुनाने के लिये सनकादि मुनि विराजमान हुए सभी ने उनकी वन्दना की परमात्मा का जय जय घोष हुआ, देवताओं ने विमानों से पुष्प वर्षा करके उत्सव मनाया। 

सनकादि ने सर्वप्रथम श्रीमदभागवत् की महिमा का वर्णन करना प्रारम्भ किया, श्रीमदभागवत् का नित्य निरनतर श्रवण करना चाहिये इसके श्रवण से भक्ति प्रकट होती है और परमात्मा हृदय में वास करते हैं उन्होंने वर्णन किया कि इस गृन्थ के बारह स्कन्ध हैं तथा कुल अट्ठारह हजार श्लोक हैं यह गृन्थ शुकदेव जी तथा राजा परिक्षित संवाद है इसे बहुत श्रद्धा के साथ श्रवण करना चाहिये, तमाम शास्त्र और पुराणादि पढने से भ्रम की स्थितियाँ हो जाती हैं इनसे उचित यह है कि भागवत जी का श्रवण किया जाये। जिस घर में नित्य श्रीमदभागवत् का पाठ होता है वह घर तो स्वयं ही तीर्थ के समान हो जाता है तथा उसमें निवास करने वाले लोगों के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं, सनकादि ने कहा कि हजारों अश्वमेध और सैकड़ों बाजपेय यज्ञ मिलकर भी इस कथा का सोलहवां अंश भी नहीं हो सकते, परमात्मा के भक्तों को चार काम आवश्य करने चाहिये नित्य श्रीमदभागवत् जी का पाठ, भगवान का नित्य चिन्तन, तुलसी को जल सिंन्चन तथा गौ की सेवा। 

उद्धव जी ने भगवान से एक बार प्रश्न किया था कि महाराज आपके वैकुण्ठ गमन के पश्चात पाप बढ जायेंगे कलियुग का अगमन हो जायेगा तो आपके भक्त किसकी शरण में जायेंगे ? तब भगवान ने उद्धव से कहा था, श्रीमदभागवत् का जो आश्रय ग्रहण करेगा वो कलि के प्रभाव से बचा रहेगा, मेरी माया भी उसे भ्रमित नहीं करेगी। जब भक्त श्रीमदभागवत कथा का श्रवण करता है तो उसके कानों के माध्यम से सिर्फ कथा का रस ही नहीं बल्कि स्वयं परमात्मा भी उसके कानों के माध्यम से प्रवेश करके उसके हृदय में विराजित हो जाता है। कथा कहती है कि जिस समय सनकादि मुनि श्रीमदभागवत का वर्णन कर रहे थे तभी अपने पुत्रों ज्ञान और वैराग्य को साथ लिये देवी भक्ति भगवान के नाम का कीर्तन श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेवा करते हुए प्रकट हुईं

उनके प्रकट के बाद सभी श्रोता जन तर्क वितर्क करने लगे। जिसके पश्चात सनकादि मुनि ने कहा श्रीमदभागवत् कथा का प्रभाव है, इसी से देवी भक्ति पुत्रों सहित प्रकट हुई है। देवी भक्ति  विनय पूर्वक सनकादि को प्रणाम करके बोलीं- महाराज यह तो कलियुग का प्रभाव है जिसके कारण मैं नष्ट हो चुकी थी पर आपकी काथामृत का प्राभव है जिसके कारण मैं पुनः पुष्ट हो गई हूँ अब आप आदेश करें कि मैं क्या करूँ। भक्ति के प्रेम और विनयमय शब्दों को सुनकर सनकादि ने कहा-हे देवी भक्ति तुम परमात्मा श्री कृष्ण के भक्तों को परमात्म स्वरूप प्रदान करने वाली हो 

संसार के समस्त रोगों जिन्हे माया-मोह आदि से परमात्मा के भक्तों को मुक्ति प्रदान करने वाली हो, अतः तुम तो धैर्य पूर्वक परमात्मा श्री कृष्ण के भक्तों के हृदयों में निवास करो देवी ये कलियुग के दोष इस संसार को तो प्रभावित करते रहेंगे परन्तु तुम पर इनकी दृष्टि का प्रभाव तक नहीं पड़ेगा। सनकादि ऋषि ने बहुत ही रहस्य की बात कही कि भक्ति परमात्मा कृष्ण के भक्तों को परमात्मा का स्वरूप प्रदान करने वाली है 

अब परमात्मा का स्वरूप क्या है तो पहली विशेषता परमात्मा की वो सदैव आनन्द स्वरूप है, वो सतचित है अर्थात् वह किसी से भेदभाव नहीं करता पूतना जो उसे स्तन पर विष लगाकर स्तन पान करने आई थी परमात्मा उसे भी मुक्ति प्रदान करता है, तो यहां सनकादि ने बहुत महत्वपूर्ण रहस्य खोला कि परमात्मा का भक्त स्वयं परमात्मा का स्वरूप हो जाता है। सनकादि का ऐसा आदेश प्रप्त करते ही भक्ति देवी समस्त भक्तों के हृदयों में जा विराजीं, भागवत जी साक्षात परमात्मा श्रीकृष्ण का स्वरूप हैं इसलिये भागवत जी के आश्रय में रहना ही भक्त का परम लक्ष्य है परम धर्म है अन्य धर्मों का कोई प्रयोजन नहीं है इसके समान।

भगवान विष्णु के अवतार-Bhagwan Vishnu ke Avatars