ऋषि नारद जी ने क्रोधवश भगवान विष्णु को श्राप दिया

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ऋषि नारद जी ने क्रोधवश भगवान विष्णु को श्राप दिया 

ऋषि नारद ब्रह्मा जी के मानस पुत्र है उनके कंठ से उनकी उत्पत्ति हुई है। ब्रह्मा जी द्वारा उत्पत्ति के पश्चात इन्हें भी सृष्टि उत्पन्न कार्य प्रदान किया गया। परन्तु सनकादी मुनियों के सामान इन्होंने भी भक्ति को सर्वश्रेष्ठ माना। नारद जी का जन्म एक आश्रम में हुआ था उनकी माता उसी आश्रम की सेविका थी। नारद जी का बचपन ऋषि कुमारों के साथ खेल-कूदकर बीता। ऋषि-महर्षियों के संग ने उनके मन में छुपी हुई आध्यात्मिक ज्ञान को जागृत किया और वे योग के रास्ते पर चल पड़े। अपनी तपस्या के बल पर उन्होंने ऋद्धि-सिद्धियाँ की प्राप्ति हुई और सदा के लिए अमर हो गए। नारद जी को यह अभिमान हो गया कि उनसे बढ़कर इस पृथ्वी पर और कोई दूसरा विष्णु भगवान का भक्त नही है। उनका व्यवहार भी इस भावना से प्रेरित होकर कुछ बदलने लगा। वे भगवान के गुणों का गान करने के साथ-साथ अपने सेवा कार्यों का भी वर्णन करने लगे। एक दिन नारद जी और भगवान विष्णु साथ-साथ वन में जा रहे थे कि अचानक विष्णु जी एक वृक्ष के नीचे बैठ गए और बोल नारद जी हमें प्यास भी लगी है। कही से पानी मिल जाए तो लाओ। नारद जी तुंरत सावधान हो गए उनके होते हुए भला भगवान प्यासे रहे। नारद जी बोले भगवन आप थोड़ी देर प्रतीक्षा करें। भगवान विष्णु ने अपनी माया सेे नारद जी को सत्य के मार्ग पर लाने का आदेश दिया। माया शुरू हो गई। नारद जी थोड़ी दूर ही गए थे कि एक गांँ दिखाई पड़ा जिसके बाहर कुएँ पर कुछ युवा स्त्रियाँ पानी भर रही थी। कुएँं के पास जब वे पहुँचे तो एक कन्या को देखकर अपनी सुध-बुध खो बैठे बस उसे ही निहारने लगे। यह भूल गए कि वे भगवान के लिए पानी लेने आए थे। 

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कन्या भी समझ गई। वह जल्दी-जल्दी जल से घड़ा भरकर अपनी सहेलियों को पीछे छोड़कर घर की ओर चली। नारद जी भी उसके पीछे हो लिए। कन्या तो घर के अंदर चली गई लेकिन नारद जी ने द्वार पर खड़े होकर नारायण, नारायण का शब्द सुनाई दिया। गृहस्वामी नारायण का नाम सुनकर बाहर आया उसने नारद जी को तुरंत पहचान लिया और अत्यन्त विनम्रता और आदर के साथ वह उन्हें घर के अन्दर ले गया। नारद जी केे हाथ-पैर धुलाकर स्वच्छ आसन पर बैठाया तथा उनकी सेवा सत्कार में कोई कमी न छोड़ी। नारदजी बोले आपके घर में जो आपकी कन्या जल का घड़ा लेकर अभी-अभी आई ह, मैं उससे विवाह करना चाहता हूँ। गृहस्वामी एकदम चकित रह गये लेकिन उसे प्रसन्नता भी हुई कि मेरी कन्या एक ऐसे महान् योगी तथा संत के पास जाएगी। उसने स्वीकृति प्रदान कर दी और नारद जी को अपने घर में ही रख लिया। दो-चार दिन पश्चात् शुभ मुहूर्त ने अपनी कन्या का विवाह नारद जी के साथ कर दिया तथा उन्हें ग्राम में ही उतनी धरती का टुकड़ा दे दिया कि खेती करके वे आराम से अपना पेट भर सकें। अब नारद जी की वीणा एक खूंटी पर टंगी रहती जिसकी ओर उनका ध्यान बहुत कम जाता। अपनी पत्नी के आगे नारायण को वे भूल गए। दिन भर खेती में लगे रहते। नारद जी की गृहस्थी भी बढ़ती गई। तीन-चार लड़के-लड़कियां भी हो गए। अब नारद जी को एक क्षण भी फुरसत न थी। वे हर समय उनके पालन-पोषण तथा पढ़ाई-लिखाई में लगे रहते अथवा खेती में काम करते। अचानक एक बार वर्षा के दिनों में तेज बारिश हुई। कई दिनों तक बंद होने का नाम ही नही लिया। बादलों की गरज और बिजली की कड़क ने सबके ह्दय में भय उत्पन्न कर दिया। मूसलाधार वर्षा ने ग्राम के पास बहने वाली नदी में बाढ़ की स्थिति पैदा कर दी। किनारे तोड़कर नदी उफन पड़ी। चारों ओर पानी ही पानी कच्चे-पक्के सभी मकान ढहने लगे। घर का सामान बह गया। पशु भी डूब गए अनेक व्यक्ति मर गए। 

गांव में त्राहि-त्राहि मच गई नारद जी अब क्या करें। अपनी पत्नी तथा बच्चों को लेकर पानी में से होते हुए जान बचाने के लिए घर से बाहर निकले बगल में गठरी एक हाथ से एक बच्चे को पकड़े दूसरे से अपनी स्त्री को संभाले तथा पत्नी भी एक बच्चे को गोद में लिए एक का हाथ पकड़े धीरे-धीरे आगे बढ़े। पानी का बहाव अत्यन्त तेज था तथा यह भी पता नही चलता था कि कहाँ गड्ढा है। नारद जी ने ठोकर खाई और गठरी बगल से निकलकर बह गई। नारद जी गठरी कैसे पकड़ें दोनों हाथ तो घिरे थे। सोचा जैसा उसकी इच्छा फिर कमा लेंगे। कुछ दूर जाने पर पत्नी एक गड्ढे में गिर पड़ी ओर गोद का बच्चा बह गया पत्नी बहुत रोई लेकिन क्या हो सकता था धीरे-धीरे और दो बच्चे भी पानी में बह गए बहुत कोशिश की उन्हें बचाने की लेकिन कुछ न हो सका। दोनों पति-पत्नी बड़े दुखी रोत एक-दूसरे को सात्वना देते आगे कोई ऊंची जगह ढूंढते बढ़ते रहे एक जगह आगे चलकर दोनों एक गड्ढे समा गए। नारद जी तो किसी प्रकार के गड्ढे में से निकल आए लेकिन उनकी पत्नी का पता नही चला। बहुत देर तक नारदजी उसे इधर से उधर दूर-दूर तक ढूंढ़ते रहे लेकिन कोई पता नही चला। उनकी तो सारी गृहस्थी उजड़ गई थी। भगवान का ध्यान आते ही नारद जी के मस्तिष्क में प्रकाश फैल गया और पुरानी सभी बातें याद आ गई वे क्यों आए थे और कहाँ फंस गए। ओ हो! भगवान विष्णु तो उनकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। वे तो उनके लिए जल लेने आए थे और यहाँ गृहस्थी बसाकर बैठ गए। वर्षो बीत गए, गृहस्थी को बसाने में और फिर सब नष्ट हो गया। क्या भगवान अब भी मेरी प्रतीक्षा में उसी वृक्ष के नीचे बैठे होंगे। यह सोचते ही बाढ़ नदारद हो गई। गांव भी अतंर्धान हो गया। वे तो घने वन में खड़े थे। 

नारद जी पछताते और शरमाते हुए दौड देखा कुछ ही दूर पर उसी वृक्ष के नीचे भगवान लेटे है। नारद जी भगवान के चरण पकड़कर बैठ गए और लगे अश्रु बहाने। उनके मुँह से एक बोल भी न फटा। भगवान मुस्कराए और बोल, तुम अभी तो गए थे। कुछ अधिक देर थोड़े ही हुई है। लेकिन नारद जी को लगता है कि वर्षों बीत गए। अब उनकी समझ में आया कि सब भगवान की माया थी जो उनके अभिमान को चूर-चूर करने के लिए पैदा हुई थी। ज्ञान और तप की माता पार्वती भी नारद जी प्रशंसक थी। तब ही एक दिन माता पार्वती श्री शिव से नारद मुनि के ज्ञान की तारीफ करने लगी। शिव ने पार्वती जी को बताया कि नारद बड़े ही ज्ञानी है। लेकिन किसी भी चीज का अंहकार अच्छा नही होता है। एक बार नारद को इसी अहंकार के कारण बंदर बनना पड़ा था। यह सुनकर माता पार्वती को बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने श्री शिव भगवान से पूरा कारण जानना चाहा। तब श्री शिव ने बतलाया इस संसार में कोई कितना ही बड़ा ज्ञानी हो लेकिन श्री हरि जो चाहते है वैसे ही होता है। नारद को एक बार अपने इसी तप और बुद्धि का अहंकार हो गया था। इसलिए नारद का अहंकार दूर करने के लिए श्रीहरि ने एक योजना बनाई। हिमालय पर्वत में एक बड़ी पवित्र गुफा थी उस गुफा के समीप गंगा बहती थी। यह गुफा नारद जी को प्रिय थी और यही पर उन्होंने कठोर तपस्या की जिसको देखकर देवराज इंद्र भयभीत हो गए कि कही देवर्षि नारद अपने तप से उनका स्वर्ग न छीन ले। इंद्र ने नारद की तपस्या भंग करने के लिये कामदेव को उनके पास भेज दिया। वहाँ पहुंँच कर कामदेव ने अपनी माया से वसंत ऋतु को उत्पन्न कर दिया। पेड़ और पत्ते पर रंग-बिरंगे फूल खिल गए कोयले कूकने लगी और भौंरे गुंजार करने लगे। कामाग्नि को भड़काने वाली शीतल मंद सुगंध सुहावनी हवा चलने लगी। रंभा आदि अप्सराएं नाचने लगी। इसका नारद जी पर कुछ भी प्रभाव नही पड़ा। इसलिए उन्होंने श्री नारद से क्षमा माँगी। 

नारद मुनि को थोड़ा भी क्रोध नही आया और उन्होंने कामदेव को क्षमा कर दिया। कामदेव वापस अपने लोक में चले गए। कामदेव के चले जाने पर नारद मुनि के मन में अहंकार हो गया कि मैंने कामदेव को जीत लिया। वहाँ से वे शिव जी के पास चले गए और उन्हें अपने कामदेव को हारने का हाल कह सुनाया। भगवान शिव समझ गए कि नारद को अहंकार हो गया है। शंकरजी ने सोचा कि यदि इनके अहंकार की बात विष्णु जी जान गए तो नारद के लिए अच्छा नही होगा। इसलिए उन्होंने नारद से कहा कि तुमने जो बात मुझे बताई है उसे श्री हरि को मत बताना। नारद जी को शिव जी की यह बात अच्छी नही लगी। नारद जी क्षीरसागर गए और भगवान शिव के मना करने के वावजूद भी सारी बात उन्हें बता दी। भगवान विष्णु समझ गए कि आज तो नारद को अहंकार ने घेर लिया है। अपने भक्त के अहंकार को वे सह नही पाते इसलिए उन्होंने अपने मन में सोचा कि मैं ऐसा उपाय करुँगा कि नारद का घमंड भी दूर हो जाए और मेरी लीला भी चलती रहे। श्री विष्णु से विदा होकर चले तो उनका अभिमान और भी बढ़ गया इधर श्री हरि ने अपनी माया से नारद जी के रास्ते में एक बड़े ही सुन्दर नगर को बना दिया। उस नगर में शीलनिधि नाम का वैभवशाली राजा रहता था। उस राजा की विश्व मोहिनी नाम की बहुत ही सुंदर बेटी थी जिसके रूप को देख कर लक्ष्मी भी मोहित हो जाएं। विश्व मोहिनी स्वयंवर करना चाहती थी इसलिए कई राजा उस नगर में आए। नारद जी उस नगर के राजा के यहाँ पहुँचे राजा ने उनका पूजन कर के उन्हें आसन पर बैठाया। फिर उनसे अपनी कन्या की हस्तरेखा देख कर उसके गुण-दोष बताने के लिया कहा। 

उस कन्या के रूप को देख कर नारद मुनि वैराग्य भूल गए और उसे देखते ही रह गए। उस कन्या की हस्तरेखा बता रही थी कि उसके साथ जो विवाह करेगा वह अमर हो जाएगा उसे संसार में कोई भी जीत नही सकेगा और संसार के समस्त जीव उसकी सेवा करेंगे। यह बात नारद मुनि ने राजा को नही बताईं और राजा को उन्होंने अपनी ओर से बना कर कुछ और अच्छी बातें कह दी। अब नारद जी ने सोचा कि कुछ ऐसा उपाय करना चाहिए कि यह कन्या मुझसे ही विवाह करे। ऐसा सोचकर नारद जी ने श्री हरि को याद किया और भगवान विष्णु उनके सामने प्रकट हो गए। नारद जी ने उन्हें सारी बात बताई और कहने लगे हे नाथ आप मुझे अपना सुंदर रूप दे दो ताकि मैं उस कन्या से विवाह कर सकूँ। भगवान हरि ने कहा हे नारद! हम वही करेंगे जिसमें तुम्हारी भलाई हो। यह सारी विष्णु जी की ही माया थी। विष्णु जी ने अपनी माया से नारद जी को बंदर का रूप दे दिया। नारद जी को यह बात समझ में नहीं आई। वो समझे कि मैं बहुत सुंदर लग रहा हूँ। वहां पर छिपे हुए शिव जी के दो गणों ने भी इस घटना को देख लिया। शिव-गण ब्राह्मण का वेष बनाकर यह सब देख रहे थे तब राजकुमारी अपने वर का चयन करने स्वयंवर में आई तो वानर के मुख वाले नारदजी को देखकर वह उनकी हंसी उड़ाने लगी। यह देखकर भगवान शंकर के गण वानर के समान मुख वाले नारदजी की हंसी उड़ाने लगे और कहा कि पहले अपना मुख दर्पण में देखिए। जब नारदजी ने अपने चेहरा वानर के समान देखा तो वह बहुत क्रोधित हुए। 

नारद मुनि उसी समय उन शिवगणों को राक्षस योनी में जन्म लेने का श्राप दे दिया। इसके बाद नारदजी भगवान विष्णु के पास गए और क्रोधित होकर उन्हें श्राप दिया कि जिस तरह आज मैं स्त्री के लिए व्याकुल हो रहा हूँ उसी प्रकार मनुष्य जन्म लेकर आपको भी स्त्री वियोग सहना पड़ेगा। उस समय वानर ही तुम्हारी सहायता करेंगे। भगवान विष्णु ने कहा ऐसा ही होगा और नारद मुनि को माया से मुक्त कर दिया। तब नारद मुनि को अपने कटु वचन और व्यवहार पर बहुत ग्लानि हुई और उन्होंने भगवान विष्णु से क्षमा माँगी। भगवान विष्णु ने कहा कि ये सब मेरी ही इच्छा से हुआ है। तब नारद मुनि ने कहा कि तुम दोनों राक्षस योनी में जन्म लेकर सारे विश्व को जीत लोगे तब भगवान विष्णु मनुष्य रूप में तुम्हारा वध करेंगे और तुम्हारा कल्याण होगा। नारद मुनि के इन्हीं श्रापों के कारण उन शिव गणों ने रावण व कुंभकर्ण के रूप में जन्म लिया और श्रीराम के रूप में अवतार लेकर भगवान विष्णु को स्त्री वियोग सहना पड़ा।

भगवान विष्णु के अवतार-Bhagwan Vishnu ke Avatars