वीरभद्र अवतार का समस्त लोकों में बहुत महत्व है। इस अवतार से संदेश मिलता है कि शक्ति का प्रयोग वहीं करना चाहिए जहाँ उसका सदुपयोग हो। वीरों को दो वर्ग होते हैं- भद्र एवं अभद्र वीर। राम, अर्जुन और भीम वीर थे। रावण, दुर्योधन और कर्ण भी वीर थे, लेकिन पहला भद्र सभ्य वीर वर्ग है और दूसरा अभद्र (असभ्य) वीर वर्ग। सभ्य वीरों का काम होता है हमेशा धर्म के पथ पर चलना तथा निःसहायों की सहायता करना। जबकि असभ्य वीर वर्ग सदैव अधर्म के मार्ग पर चलते हैं भद्र का अर्थ होता है कल्याणकारी।
जब सती विवाह योग्य हुई तो दक्ष को उनके लिए वर की चिंता हुई। उन्होंने ब्रह्मा जी से परामर्श किया। ब्रह्मा जी ने कहा, सती आद्या का अवतार है आद्या आदिशक्ति और शिव आदि पुरुष हैं। सती के विवाह के लिए शिव ही योग्य और उचित वर है दक्ष ने ब्रह्मा जी की बात मानकर सती का विवाह भगवान शिव के साथ कर दिया। सती कैलाश में जाकर भगवान शिव के साथ रहने लगी। जबकि भगवान शिव के दक्ष के जामाता थे किंतु एक ऐसी घटना घटी जिसके कारण दक्ष के हृदय में भगवान शिव के प्रति बैर और विरोध पैदा हो गया।
एक बार ब्रह्मा ने एक धर्म सभा का आयोजन किया था। सभी बड़े-बड़े देवता सभा में एकत्र थे। भगवान शिव भी एक ओर बैठे थे। सभा मण्डल में दक्ष का आगमन हुआ। दक्ष के आगमन पर सभी देवता उठकर खड़े हो गए पर भगवान शिव खड़े नहीं हुए। उन्होंने दक्ष को प्रणाम भी नही किया इसलिए दक्ष ने अपमान का अनुभव किया। और उन्हें भगवान शिव के प्रति ईष्या होने लगी उनसे बदला लेने के लिए समय और अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। भगवान शिव ने माँ सती से कहा- तुम मेरी अर्धांगिनी कैसे रह सकती हो? : सती के मन में जिज्ञासा उत्पन्न हो उठी उन्होंने भगवान शिव से प्रश्न किया आप राम-राम कहते हो राम कौन है? भगवान शिव ने उत्तर दिया राम आदि पुरुष है, स्वयंभू है, मेरे आराध्य है। माँ सती सोचने लगी अयोध्या के नृपति दशरथ के पुत्र राम आदि पुरुष के अवतार कैसे हो सकते है? वे तो आजकल अपनी पत्नी सीता के वियोग में दंडक वन में उन्मत्तों की भांति विचरण कर रहे है। वृक्ष और लताओं से उनका पता पूछते फिर रहे है। यदि वे आदि पुरुष के अवतार होते तो क्या इस प्रकार आचरण करते? सती के मन में राम की परीक्षा लेने का विचार उत्पन्न हुआ। सीता का रूप धारण करके दंडक वन में जा पहुंची और राम के सामने प्रकट हुईं। भगवान राम ने सती को सीता के रूप में देखकर कहा- माता, आप एकाकी यहाँ वन में कहाँ घूम रही है? बाबा विश्वनाथ कहाँ है? इस प्रश्न उत्तर दिये बिना ही माँ सती अदृश्य हो गई और मन ही मन पश्चाताप करने लगी कि उन्होंने व्यर्थ ही राम पर संदेह किया। राम सचमुच आदि पुरुष के अवतार है। सती जब लौटकर कैलाश गईं तो भगवान शिव ने उन्हें आते देख कहा सती तुमने सीता के रूप में राम की परीक्षा लेकर अच्छा नहीं किया। सीता मेरी आराध्या है और तुम मेरी अर्धांगिनी कैसे रह सकती हो! इस जन्म में हम और तुम पति और पत्नी के रूप में नहीं मिल सकते। शिव जी का कथन सुनकर सती अत्यधिक दुखी हुईं शिव जी के मुख से निकली हुई बात असत्य कैसे हो सकती थी? भगवान शिव ध्यान में लीन हो गये।
राजा दक्ष ने कनखल में बहुत बड़ा यज्ञ आरम्भ किया उसमें सभी देवताओं और मुनियों को आमन्त्रित किया गया परन्तु शिव जी को आमन्त्रित नही किया गया क्योंकि उनके मन में शिव जी के प्रति ईष्या थी। सती को जब यह ज्ञात हुआ कि उसके पिता ने बहुत बड़े यज्ञ की रचना की है तो उनका मन यज्ञ के समारोह में सम्मिलित होने के लिए बैचैन हो उठा। उनकी इच्छा देखकर भगवान शिव ने अनुमति दे दी। जब सती अपने पिता के घर गईं किसी ने भी उनसे प्रेमपूर्वक बात नही की। दक्ष ने उन्हें देखकर कहा तुम क्या यहाँ मेरा अपमान कराने आई हो? अपनी बहनों को तो देखो, वे किस प्रकार भांति-भांति के अलंकारों और सुंदर वस्त्रों से सुसज्जित हैं। तुम्हारे शरीर पर मात्र बाघंबर है। तुम्हारा पति शमशानवासी और भूतों का नायक है। वह तुम्हें बाघंबर छोड़कर और पहना ही क्या सकते है। दक्ष के कथन से सती के हृदय में पश्चाताप का सागर उमड़ पड़ा। वे सोचने लगी यहाँ आकर अच्छा नही किया। भगवान शिव ठीक ही कह रहे थे बिना बुलाए पिता के घर भी नही जाना चाहिए। पिता के कटु वचन और अपमानजनक शब्द सुनकर भी सती मौन रही उस यज्ञमंडल में गईं जहां सभी देवता और ऋषि-मुनि बैठे थे तथा यज्ञकुण्ड में धू-धू करती जलती हुई अग्नि में आहुतियां डालने लगी। सती ने यज्ञमंडप में सभी देवताओं को देखा मगर भगवान शिव का भाग नहीं देखा। वे भगवान शिव का भाग न देखकर अपने पिता से बोली-पिताजी! यज्ञ में तो सबके भाग दिखाई पड़ रहे हैं किंतु कैलाशपति का भाग नहीं है। आपने उनका भाग क्यों नहीं दिया? दक्ष ने गर्व से उत्तर दिया मैं तुम्हारे पति कैलाश को देवता नहीं समझता। वह तो भूतों का स्वामी नग्न रहने वाला और हड्डियों की माला धारण करने वाला है। वह देवताओं की पंक्ति में बैठने योग्य नहीं हैं उसे कौन भाग देगा।
मात सती भगवान-शिव का अपमान सहन न कर पायी
यह सुनकर सती का मुखमंडल प्रलय के सूर्य की भांति तेजोद्दीप्त हो उठा। उन्होंने पीड़ा से तिलमिलाते हुए कहा ओह! मैं इन शब्दों को कैसे सुन रही हूँ मुझे धिक्कार है। देवताओं, तुम्हें भी धिक्कार है! तुम भी उन कैलाशपति के लिए इन शब्दों को कैसे सुन रहे हो, जो मंगल के प्रतीक है और जो क्षण मात्र में संपूर्ण सृष्टि को नष्ट करने की शक्ति रखते है। वे मेरे स्वामी है। नारी के लिए उसका पति ही स्वर्ग होता है। जो नारी अपने पति के लिए अपमानजनक शब्दों को सुनती है, उसे नरक में जाना पड़ता है। पृथ्वी सुनो, आकाश सुनो और देवताओं, तुम भी सुनो! मेरे पिता ने मेरे स्वामी का अपमान किया है। मैं अब एक क्षण भी जीवित रहना नही चाहती। सती अपने कथन को समाप्त करती हुई यज्ञ के कुण्ड में कूद पड़ी। जलती हुई आहुतियों के साथ उनका शरीर भी जलने लगा। यज्ञमंडप में खलबली पैदा हो गई, हाहाकार मच गया। देवता उठकर खड़े हो गए।
भगवान शिव को जब यह घटना की जानकारी हुई तो वे अपने क्रोध पर नियंत्रण नही रख पाए। उनके क्रोध से पूरी सृष्टि कांपने लगी अपने इसी क्रोध की ज्वाला से उन्होंने वीरभद्र की उत्पत्ति की। उन्होंने क्रोध में अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक पर्वत के ऊपर पटक दिया। उस जटा के पूर्वभाग से महाभंयकर वीरभद्र प्रगट हुए। भगवान शिव ने वीरभद्र को आज्ञा दी कि जा दक्ष के यज्ञ में सब कुछ समाप्त कर दे। वीरभद्र क्रोध से कांप उठे और बिना समय नष्ट किए महादेव के आदेश का पालन करना शुरू कर दिया। वह प्रचंड आंधी की भांति कनखल जा पहुंचे। हालांकि दक्ष को परास्त करना बहुत कठिन काम था लेकिन वीरभद्र ने इस काम को भी कर दिखाया जबकि यज्ञ स्थल की रक्षा का काम स्वयं भगवान विष्णु कर रहे थे। वीरभद्र ने विष्णु से भी संग्राम किया। विष्णु को जब इस बात का अनुभव हुआ कि वीरभद्र का तेज प्रबल है तो वे अंतर्ध्यान हो गए। ब्रह्मपुत्र दक्ष भी भय के मारे छिप गए थे। वीरभद्र ने दक्ष की सेना पर आक्रमण कर दिया। इसके अलावा जो भी उसके मार्ग में आया उसने उसका सर्वनाश कर दिया। वे उछ्ल-उछलकर यज्ञ का विध्वंस करने लगे। यज्ञमंडप में भगदड़ मच गई। देवता और ऋषि-मुनि भाग खड़े हुए। दक्ष ने योगबल से अपने सिर को अभेद्य बना लिया। तब वीरभद्र ने दक्ष की छाती पर पैर रख दोनों हाथों ने गर्दन मरोड़कर उसे शरीर से अलग कर अग्निकुंड में डाल दिया था। सती के जले हुए शरीर को देखकर भगवान शिव ने अपने आपको भूल गए। सती के प्रेम और उनकी भक्ति ने शंकर के मन को व्याकुल कर दिया जिन्होंने काम पर भी विजय प्राप्त की थी और जो सारी सृष्टि को नष्ट करने की क्षमता रखते थे। वे सती के प्रेम में खो गए। भगवान शिव सती के जले हिए शरीर को कंधे पर रख लिया। वे सभी दिशाओं में भ्रमण करने लगे। शिव और सती के इस अलौकिक प्रेम को देखकर पृथ्वी रुक गई, हवा रूक गई, जल का प्रवाह ठहर गया और रुक गईं देवताओं की सांसे। सृष्टि व्याकुल हो उठी, भयानक संकट उपस्थित देखकर सृष्टि के पालक भगवान विष्णु आगे बढ़े।
वे भगवान शिव की बेसुधी में अपने चक्र से सती के एक-एक अंग को काट-काट कर गिराने लगे। धरती पर इक्यावन स्थानों में सती के अंग कट-कटकर गिरे। जब सती के सारे अंग कट कर गिर गए तो भगवान शिव पुनः अपने आप में आए। जब वे अपने आप में आए तब ब्रह्माजी और विष्णुजी ने सोचा कि यज्ञ को बीच में छोड़ देना शुभ नही है लेकिन जिसने इस यज्ञ का आयोजन किया था प्रजापति दक्ष उसकी तो मृत्यु हो चुकी थी तो पुनः ब्रह्माजी और विष्णु जी फिर कैलाश पर्वत पर गए और उन्होंने महादेव को समझाने का बहुत प्रयास किया कि वे राजा दक्ष को जीवन देकर यज्ञ को संपन्न करने की कृपा करे। बहुत समझाने पर भगवान शिव ने उनकी बात मान ली और दक्ष के धड़ से भेड़ का सिर जोड़ कर उसे जीवनदान दिया। जिन स्थानों में सती के अंग कट-कटकर गिरे थे वह स्थान आज शक्ति के पीठ के नाम से जानें जाते है। आज भी उन स्थानों में सती का पूजन होता है।