सत्यनारायण भगवान की कथा लोक-प्रलोक में प्रचलित है। श्री सत्यनारायण का पूजन स्वयं करने से अति फलदायक होता है जो भी व्यक्ति सत्यनारायण की पूजा का संकल्प लेते हैं उन्हें कथा के समापन्न तक व्रत रखना होता है। पूजा स्थान को गाय के गोबर से पवित्र करके चतुर्भुज आकार की चैकी रखें इसके चारों ओर केले का वृक्ष स्थापित करके श्री सत्यनारायण भगवान की प्रतिमा रख दें। सर्वप्रथम गणपति की पूजा करें फिर इन्द्रादि दशदिक्पाल की और क्रमशः पंच लोकपाल, सीता-राम, लक्ष्मण और राधा-कृष्ण की। अब सत्यनारायण भगवान की पूजा करें। अन्त में माता लक्ष्मी, महादेव शिव और ब्रह्मा जी की पूजा करें। पूजा के बाद समस्त देवों की आरती करें और चरणामृत लेकर सभी को प्रसाद वितरण करें।
अनेक प्रकार से सत्यनारायण कथा का महत्व : सत्यनारायण व्रत का अनुष्ठान करके मनुष्य सभी प्रकार के दुःखों से मुक्त हो जाता है। इस युग में सत्यनारायण कथा अति फलदायी होती है। सत्यनारायण कथा का अधिक महत्व होता है। किसी भी शुभ कार्य गृह प्रवेश, जन्मदिन, मुंडन, विवाह-शादी या नियमित रूप से सत्यनारायण की पूजा स्वयं की जाती हैं। सत्यनारायण की पूजा एवं कथा दोनों का ही बहुत महत्व है कथा सुनने से भी पूण्य की प्राप्ति होती है। सत्य को मनुष्य में जगाये रखने के लिए सत्यनारायण की पूजा का महत्व आध्यात्म में निकलता हैं। भगवान की भक्ति के कई रास्ते हैं। धार्मिक कर्म कांड अथवा मानव सेवा। पूजा पाठ में मन को लगा देने से चित्त शांत होता है और मन पर नियत्रण होता है।
सत्यनारायण पूजा के लाभ: शांति मयी जीवन और सुख-समृद्धि के लिए सत्यनारायण कथा का विशेष महत्व है। विघ्न-बाधाओं को दूर करने के लिए सत्यनारायण कथा का विशेष महत्व है। नकारात्मकता के समाधान के लिए पूर्णिमा के दिन कथा का विशेष महत्व है।
सत्यनारायण कथा
शौनकादि ऋषि नैमिषारण्य स्थित महर्षि सूत के आश्रम पर पहुंचे। ऋषिगणों ने श्रीसूत से प्रश्न करते है कि लौकिक कष्टमुक्ति, सांसारिक सुख-समृद्धि और पारलौकिक सिद्धि के लिए सरल उपाय क्या है तब श्रीसूत जी बताते हैं हे शौनकादि ऋषियों ऐसा ही प्रश्न नारद जी ने भगवान विष्णु से किया था। भगवान विष्णु ने नारद जी को बताया कि लौकिक क्लेश मुक्ति, सांसारिक सुख-समृद्धि एवं पारलौकिक लक्ष्य सिद्धि के लिए एक ही मार्ग है, वह है श्री सत्यनारायण व्रत कथा। सत्यनारायण का अर्थ है सत्याचरण, सत्याग्रह, सत्यनिष्ठा। संसार में सुख-समृद्धि की प्राप्ति सत्याचरण द्वारा ही संभव है। सत्य ही ईश्वर है। सत्याचरणका अर्थ है ईश्व की अराराधना और पूजा। श्रीसूत जी कहते है एक बार नारद जी भगवान श्री विष्णु के पास जाकर उनकी स्तुति करते है तब भगवान श्री विष्णु जी ने नारद जी से कहा किस चीज से परेशान हो, तुम क्या जानता चाहते हो? तब नारद जी बोले हे प्रभु मृत्युलोक में अपने पापकर्मों के द्वारा विभिन्न योनियों में उत्पन्न सभी लोग विभिन्न प्रकार के क्लेशों से दुखी हो रहे है। हे प्रभु! उनका उद्धार कैसे होगा? आपकी कृपा से मैं यह सुनना चाहता हूं शीघ्र बतायें।श्री विष्णु जी कहते है हे वत्स! तुमने संसार की भलाई के लिए अत्यन्त लाभकारी प्रश्न पूछा हैे जिस व्रत कथा के करने से प्राणी मोह से मुक्त हो जाता है उस कथा को मैं तुम्हें सुनाता हूं हे वत्स! स्वर्ग और मृत्युलोक में दुर्लभ भगवान सत्यनारायण का एक महान पुण्यदायी व्रत है। सत्यनारायण व्रत करके मनुष्य शीघ्र ही सुख प्राप्त कर परलोक में मोक्ष प्राप्त कर सकता है। श्री विष्णु की ऐसी वाणी सनुकर नारद जी ने कहा-प्रभो इस व्रत को करने का फल क्या है, इसका विधान क्या है, इस व्रत को किसने किया और इसे कब करना चाहिए, मुझे विस्तार से सुनाये। श्री विष्णु ने कहा यह सत्यनारायण व्रत दुख-शोक आदि का शमन करने वाला, धन-धान्य की वृद्धि करने वाला, सौभाग्य और संतान देने वाला तथा सर्वत्र विजय प्रदान करने वाला है। जिस किसी भी दिन भक्ति और श्रद्धा से समन्वित होकर मनुष्य ब्राह्मणों और बन्धुबान्धवों के साथ धर्म में तत्पर होकर सायंकाल भगवान सत्यनारायण की पूजा करता है उसे निश्चित रूप से इन सबकी प्राप्ति होती है।
दूसरा अध्याय
श्रीसूतजी बोले अब मैं पुनः पूर्वकाल में जिसने इस सत्यनारायण व्रत को किया था मैं उनके बारे में विस्तारपूर्वक बताता हूं। रमणीय काशी नामक नगर में कोई अत्यन्त निर्धन ब्राह्मण रहता था। भूख-प्यास से परेशान होकर वह हर रोज इधर-उधर भटकता रहता था। ब्राह्मण प्रिय भगवान ने उस दुखी ब्राह्मण को देखकर वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण करके उस द्विज से आदरपूर्वक पूछा हे विप्र! हर रोज अत्यन्त दुखी होकर तुम किसलिए इधर-उधर भ्रमण करते रहते हो। हे द्विजश्रेष्ठ! यह सब मुझे बताओ मैं जानना चाहता हूं। ब्राह्मण बोला प्रभो! मैं अत्यन्त दरिद्र ब्राह्मण हूं और भिक्षा के लिए ही इधर-उधर घूममता रहता हूं। यदि मेरी इस दरिद्रता को दूर करने का आप के पास कोई उपाय है तो कृपा करके बतलाइये। वृद्ध ब्राह्मण बोला हे ब्राह्मणदेव! सत्यनारायण भगवान् विष्णु अभीष्ट फल को देने वाले है हे विप्र! तुम उनका उत्तम व्रत करो जिससे तुम्हें सभी दुखों से मुक्ति मिलेगी। व्रत का फल बताकर ब्राह्मण रूपधारी भगवान् विष्णु वहीं पर अन्तर्धान हो गये। वृद्ध ब्राह्मण ने जैसा कहा है उस व्रत को अच्छी प्रकार से वैसे ही करूंगा यह सोचते हुए उस ब्राह्मण को रात में नींद नही आयी। अगले दिन प्रातःकाल उठकर सत्यनारायण का व्रत करूंगा ऐसा संकल्प करके वह ब्राह्मण भिक्षा के लिए चल पड़ा। उस दिन ब्राह्मण को भिक्षा में बहुत सा धन प्राप्त हुआ। उसी धन से उसने बन्धु-बान्धवों के साथ भगवान सत्यनारायण का व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से वह श्रेष्ठ ब्राह्मण सभी दुखों से मुक्त होकर समस्त सम्पत्तियों से सम्पन्न हो गया। उस दिन से लेकर प्रत्येक महीने उसने यह व्रत किया। इस प्रकार भगवान् सत्यनारायण के इस व्रत को करके वह श्रेष्ठ ब्राह्मण सभी पापों से मुक्त हो गया और उसने दुर्लभ मोक्षपद को प्राप्त किया। हे विप्र! पृथ्वी पर जब भी मनुष्य श्री सत्यनारायण का व्रत करेगा उसी समय उसके समस्त दुख नष्ट हो जायेंगे। हे मुने! इस पृथ्वी पर उस ब्राह्मण से सुने हुए इस व्रत को किसने किया हम वह सब सुनना चाहते है इस व्रत के प्रति हमारी जिज्ञासा बढ़ती जा रही है। श्रीसूत जी बोले हे मुनियों! पृथ्वी पर जिसने यह व्रत किया उसे आप लोग सुनें। एक बार वह द्विजश्रेष्ठ अपनी धन-सम्पत्ति के अनुसार बन्धु-बान्धवों तथा परिवारजनों के साथ व्रत करने के लिए उद्यत हुआ। इसी दौरान एक लकड़ी काटने वाला वहां आया और लकड़ी बाहर रखकर उस ब्राह्मण के घर गया। प्यास से व्याकुल वह उस ब्राह्मण को व्रत करता हुआ देख प्रणाम करके उससे बोला- प्रभो! आप यह क्या कर रहे हो ऐसेे करने से किस फल की प्राप्ति होती है मुझे बताइये। विप्र ने कहा यह सत्यनारायण का व्रत है जो सभी मनोरथों को प्रदान करने वाला है। उसी के प्रभाव से मुझे यह सब महान धन-धान्य आदि प्राप्त हुआ है। जल पीकर तथा प्रसाद ग्रहण करके वह नगर चला गया। सत्यनारायण देव के लिए मन से ऐसा सोचने लगा कि आज लकड़ी बेचने से जो धन प्राप्त होगा उसी धन से भगवान सत्यनारायण का श्रेष्ठ व्रत करूंगा। इस प्रकार मन से चिन्तन करता हुआ लकड़ी को मस्तक पर रख कर उस सुन्दर नगर में गया जहां धन से सम्पन्न लोग रहते थे। उस दिन उसने लकड़ी का दुगुना मूल्य प्राप्त किया। इसके बाद प्रसन्न हृदय होकर वह पके हुए केले का फल, शर्करा, घी, दूध और गेहूं का चूर्ण सवा मात्रा में लेकर अपने घर आया। तत्पश्चात उसने अपने बान्धवों को बुलाकर विधि-विधान से भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत किया। उस व्रत के प्रभाव से वह धन-पुत्र से सम्पन्न हो गया और इस लोक में अनेक सुखों का उपभोग कर अन्त में बैकुण्ठ लोक चला गया।
तीसरा अध्याय
श्रीसूतजी कहते हे ऋषियों! अब मैं पुनः आगे की कथा बताता हूं आप लोग ध्यान से सुनें। प्राचीन काल में उल्कामुख नाम का एक राजा था। वह जितेन्द्रिय, सत्यवादी तथा अत्यन्त बुद्धिमान था। वह विद्वान राजा प्रतिदिन देवालय जाता और ब्राह्मणों को धन देकर सन्तुष्ट करता था। कमल के समान मुख वाली सर्वगुण वाली उसकी धर्मपत्नी थी। राजा एक दिन अपनी धर्मपत्नी के साथ भद्रशीला नदी के तट पर श्री सत्यनारायण का व्रत कर रहा था। उसी समय व्यापार के लिए अनेक प्रकार की पुष्कल धनराशि से सम्पन्न एक साधु नाम का बनिया वहां आया। भद्रशीला नदी के तट पर नाव को स्थापित कर वह राजा के समीप गया और राजा को उस व्रत में दीक्षित देखकर विनयपूर्वक पूछने लगा। हे राजन! आप भक्तियुक्त चित्त से यह क्या कर रहे है कृपया इसका महत्व हमें बतलाइये मैं जानना चाहता हूं। राजा बोला मैं पुत्र प्राप्ति की कामना से अपने बन्धु-बान्धवों के साथ मैं अतुल तेज सम्पन्न भगवान् विष्णु का व्रत एवं पूजन कर रहा हूं। राजा की बात सुनकर साधु ने आदरपूर्वक कहा -राजन्! इस विषय में आप मुझे सब कुछ विस्तार से बतलाइये आपके कथनानुसार मैं व्रत एवं पूजन करूंगा। मुझे भी संतति नहीं है। इससे अवश्य ही संतति प्राप्त होगी। ऐसा विचार कर वह व्यापार से निवृत्त हो आनन्दपूर्वक अपने घर आया। उसने अपनी भार्या से संतति प्रदान करने वाले इस सत्यव्रत को विस्तार पूर्वक बताया तथा जब मुझे संतति प्राप्त होगी तब मैं इस व्रत को करूंगा। इस प्रकार उस साधु ने अपनी भार्या लीलावती से कहा। भगवान् श्री सत्यनारायण की कृपा से उसकी वह भार्या गर्भिणी हुई। दसवें महीने में उससे कन्यारत्न की उत्पत्ति हुई और वह शुक्लपक्ष के चन्द्रम की भांति दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। उस कन्या का कलावतीष् यह नाम रखा गया। इसके बाद एक दिन लीलावती ने अपने स्वामी से मधुर वाणी में कहा -आप पूर्व में संकल्पित श्री सत्यनारायण के व्रत को क्यों नहीं कर रहे हैं। साधु बोला मैं इसके विवाह के समय व्रत करूंगा। इस प्रकार अपनी पत्नी को भली-भांति आश्वस्त कर वह व्यापार करने के लिए नगर की ओर चला गया। इधर कन्या कलावती पिता के घर में बढ़ने लगी। तदनन्तर धर्मज्ञ साधु ने नगर में सखियों के साथ क्रीड़ा करती हुई अपनी कन्या को विवाह योग्य देखकर आपस में मन्त्रणा करके कन्या विवाह के लिए श्रेष्ठ वर का अन्वेषण करो ऐसा दूत से कहकर शीघ्र ही उसे भेज दिया। उसकी आज्ञा प्राप्त करके दूत कांचन नामक नगर में गया और वहां से एक वणिक का पुत्र लेकर आया। उस साधु ने उस वणिक के पुत्र को सुन्दर और गुणों से सम्पन्न देखकर अपनी जाति के लोगों तथा बन्धु-बान्धवों के साथ संतुष्टचित्त हो विधि-विधान से वणिकपुत्र के हाथ में कन्या का दान कर दिया। उस समय वह साधु बनिया दुर्भाग्यवश भगवान् का वह उत्तम व्रत भूल गया। पूर्व संकल्प के अनुसार विवाह के समय में व्रत न करने के कारण भगवान उस पर रुष्ट हो गये। कुछ समय के पश्चात अपने व्यापार कर्म में कुशल वह साधु बनिया काल की प्रेरणा से अपने दामाद के साथ व्यापार करने के लिए समुद्र के समीप स्थित रत्नसारपुर नामक सुन्दर नगर में गया और वहां दामाद के साथ व्यापार करने लगा। उसके बाद वे दोनो राजा चन्द्रकेतु के रमणीय उस नगर में गये। उसी समय भगवान् श्री सत्यनारायण ने रूष्ट होकर कठिन दुख का शाप दे दिया। एक दिन एक चोर राजा चन्द्रकेतु के धन को चुराकर वहीं आया जहां दोनों वणिक स्थित थे। वह अपने पीछे दौड़ते हुए दूतों को देखकर भयभीत होकर धन वहीं छोड़कर शीघ्र ही छिप गया। इसके बाद राजा के दूत वहां आ गये जहां वह साधु वणिक था। वहां राजा के धन को देखकर वे दूत उन दोनों वणिक पुत्रों को बांधकर ले आये और हर्षपूर्वक दौड़ते हुए राजा से बोले प्रभो! हम दो चोर पकड़ लाए हैं इन्हें देखकर आप आज्ञा दें। राजा की आज्ञा से दोनों शीघ्र ही दृढ़तापूर्वक बांधकर बिना विचार किये महान कारागार में डाल दिये गये। भगवान् सत्यदेव की माया से किसी ने उन दोनों की बात नहीं सुनी और राजा चन्द्रकेतु ने उन दोनों का धन भी ले लिया। भगवान के शाप से वणिक के घर में उसकी भार्या भी अत्यन्त दुखित हो गयी और उनके घर में जो भी धन था वह चोर ने चुरा लिया। लीलावती शारीरिक तथा मानसिक पीड़ाओं से युक्त, भूख और प्यास से दुखी हो अन्न की चिन्ता से दर-दर भटकने लगी। कलावती कन्या भी भोजन के लिए इधर-उधर प्रतिदिन घूमने लगी। एक दिन भूख से पीडित कलावती एक ब्राह्मण के घर गयी। वहां जाकर उसने श्रीसत्यनारायण के व्रत-पूजन को देखा। वहां बैठकर उसने कथा सुनी और वरदान मांगा। उसके बाद प्रसाद ग्रहण करके वह कुछ रात होने पर घर गयी। माता ने कलावती कन्या से प्रेमपूर्वक पूछा पुत्री रात में तू कहां रुक गयी थी तुम्हारे मन में क्या है कलावती कन्या ने तुरन्त माता से कहा मां! मैंने एक ब्राह्मण के घर में मनोरथ प्रदान करने वाला व्रत देखा है। कन्या की उस बात को सुनकर वह वणिक की भार्या व्रत करने को उद्यत हुई और प्रसन्न मन से उस साध्वी ने बन्धु-बान्धवों के साथ भगवान् श्री सत्यनारायण का व्रत किया तथा इस प्रकार प्रार्थना की हे भगवन! आप हमारे पति एवं जामाता के अपराध को क्षमा करें। वे दोनों अपने घर शीघ्र आ जाये। इस व्रत से भगवान सत्यनारायण पुनः संतुष्ट हो गये तथा उन्होंने चन्द्रकेतु को स्वप्न दिखाया और स्वप्न में कहा प्रातः काल दोनों वणिकों को छोड़ दो और वह सारा धन भी दे दो जो तुमने उनसे इस समय ले लिया है अन्यथा राज्य धन एवं पुत्र सहित तुम्हारा सर्वनाश कर दूंगा। राजा से स्वप्न में ऐसा कहकर भगवान सत्यनारायण अन्तर्धान हो गये। इसके बाद प्रातः काल राजा ने अपने सभासदों के साथ सभा में बैठकर अपना स्वप्न लोगों को बताया और कहा दोनों बंदी वणिक पुत्रों को शीघ्र ही मुक्त कर दो राजा की ऐसी बात सुनकर वे राजपुरुष दोनों महाजनों को बन्धनमुक्त करके राजा के सामने लाकर विनयपूर्वक बोले महाराज! बेड़ी-बन्धन से मुक्त करके दोनों वणिक पुत्र लाये गये हैं। इसके बाद दोनों महाजन नृपश्रेष्ठ चन्द्रकेतु को प्रणाम करके अपने पूर्व-वृतान्त का स्मरण करते हुए भयविह्वन हो गये और कुछ बोल न सके। राजा ने वणिक पुत्रों को देखकर आदरपूर्वक कहा आप लोगों को यह महान दुख प्राप्त हुआ है अब कोई भय नहीं है। ऐसा कहकर उनकी बेड़ी खुलवाकर क्षौरकर्म आदि कराया। राजा ने वस्त्र देकर उन दोनों वणिकपुत्रों को संतुष्ट किया तथा सामने बुलाकर वाणी द्वारा अत्यधिक आनन्दित किया। पहले जो धन लिया था उसे दूना करके दिया उसके बाद राजा ने पुनः उनसे कहा अब आप अपने घर को जा सकते है। राजा को प्रणाम करके दोनों ने अपने घर की ओर प्रस्थान किया।
चौथा अध्याय
श्रीसूत जी बोले साधु बनिया मंगलाचरण कर और ब्राह्मणों को धन देकर अपने नगर के लिए चल पड़ा। साधु के कुछ दूर जाने पर भगवान सत्यनारायण की उसकी सत्यता की परीक्षा के विषय में जिज्ञासा हुई साधो! तुम्हारी नाव में क्या भरा है तब धन के मद में चूर दोनों महाजनों ने अवहेलनापूर्वक हंसते हुए कहा क्यों पूछ रहे हो क्या कुछ द्रव्य लेने की इच्छा है। हमारी नाव में तो लता और पत्ते आदि भरे हैं ऐसी निष्ठुर वाणी सुनकर तुम्हारी बात सच हो जाय ऐसा कहकर दण्डी संन्यासी को रूप धारण किये हुए भगवान कुछ दूर जाकर समुद्र के समीप बैठ गये। दण्डी के चले जाने पर नित्यक्रिया करने के पश्चात उतराई हुई अर्थात जल में उपर की ओर उठी हुई नौका को देखकर साधु अत्यन्त आश्चर्य में पड़ गया और नाव में लता और पत्ते आदि देखकर मुर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। सचेत होने पर वणिकपुत्र चिन्तित हो गया। तब उसके दामाद ने इस प्रकार कहा आप शोक क्यों करते हैं दण्डी ने शाप दे दिया है इस स्थिति में वे ही चाहें तो सब कुछ कर सकते हैं इसमें संशय नहीं। अतः उन्हीं की शरण में हम चलें वहीं मन की इच्छा पूर्ण होगी। दामाद की बात सुनकर वह साधु बनिया उनके पास गया और वहां दण्डी को देखकर उसने भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम किया तथा आदरपूर्वक कहने लगा आपके सम्मुख मैंने जो कुछ कहा है असत्यभाषण रूप अपराध किया है आप मेरे उस अपराध को क्षमा करें। ऐसा कहकर बार-बार प्रणाम करके वह महान शोक से आकुल हो गया। दण्डी ने उसे रोता हुआ देखकर कहा हे मूर्ख! रोओ मत मेरी बात सुनो। मेरी पूजा से उदासीन होने के कारण तथा मेरी आज्ञा से ही तुमने बार-बार दुख प्राप्त किया है। भगवान की ऐसी वाणी सुनकर वह उनकी स्तुति करने लगा। साधु ने कहा हे प्रभो! यह आश्चर्य की बात है कि आपकी माया से मोहित होने के कारण ब्रह्मा आदि देवता भी आपके गुणों और रूपों को यथावत रूप से नहीं जान पाते फिर मैं मूर्ख आपकी माया से मोहित होने के कारण कैसे जान सकता हूं। आप प्रसन्न हों। मैं अपनी धन-सम्पत्ति के अनुसार आपकी पूजा करूंगा। मैं आपकी शरण में आया हूं। नौका में जो धन था, उसकी तथा मेरी रक्षा करें। उस बनिया की भक्तियुक्त वाणी सुनकर भगवान जनार्दन संतुष्ट हो गये। भगवान हरि उसे अभीष्ट वर प्रदान करके वहीं अन्तर्धान हो गये। उसके बाद वह साधु अपनी नौका में चढ़ा और उसे धन-धान्य से परिपूर्ण देखकर भगवान सत्यदेव की कृपा से हमारा मनोरथ सफल हो गया। ऐसा कहकर स्वजनों के साथ उसने भगवान की विधिवत पूजा की। भगवान श्री सत्यनारायण की कृपा से वह आनन्द से परिपूर्ण हो गया और नाव को प्रयत्नपूर्वक संभालकर उसने अपने देश के लिए प्रस्थान किया। साधु बनिया ने अपने दामाद से कहा वह देखो मेरी रत्नपुरी नगरी दिखायी दे रही है। इसके बाद उसने अपने धन के रक्षक दूत को अपने आगमन का समाचार देने के लिए अपनी नगरी में भेजा।उसके बाद उस दूत ने नगर में जाकर साधु की भार्या को देख हाथ जोड़कर प्रणाम किया तथा उसके लिए अभीष्ट बात कही सेठ जी अपने दामाद तथा बन्धुवर्गों के साथ बहुत सारे धन-धान्य से सम्पन्न होकर नगर के निकट पधार गये हैं।दूत के मुख से यह बात सुनकर वह महान आनन्द से विह्वल हो गयी और उस साध्वी ने श्री सत्यनारायण की पूजा करके अपनी पुत्री से कहा मैं साधु के दर्शन के लिए जा रही हूं, तुम शीघ्र आओ माता का ऐसा वचन सुनकर व्रत समाप्त करके प्रसाद का परित्याग कर वह कलावती भी अपने पति का दर्शन करने के लिए चल पड़ी। इससे भगवान सत्यनारायण रुष्ट हो गये और उन्होंने उसके पति को तथा नौका को धन के साथ हरण करके जल में डुबो दिया। इसके बाद कलावती कन्या अपने पति को न देख महान शोक से रुदन करती हुई पृथ्वी पर गिर पड़ी। नाव का अदर्शन तथा कन्या को अत्यन्त दुखी देख भयभीत मन से साधु बनिया से सोचा यह क्या आश्चर्य हो गया नाव का संचालन करने वाले भी सभी चिन्तित हो गये। तदनन्तर वह लीलावती भी कन्या को देखकर विह्वल हो गयी और अत्यन्त दुख से विलाप करती हुई अपने पति से इस प्रकार बोली अभी नौका के साथ वह कैसे अलक्षित हो गया न जाने किस देवता की उपेक्षा से वह नौका हरण कर ली गयी अथवा श्री सत्यनारायण का माहात्म्य कौन जान सकता है। ऐसा कहकर वह स्वजनों के साथ विलाप करने लगी और कलावती कन्या को गोद में लेकर रोने लगी। कलावती कन्या भी अपने पति के नष्ट हो जाने पर दुखी हो गयी और पति की पादुका लेकर उनका अनुगमन करने के लिए उसने मन में निश्चय किया। कन्या के इस प्रकार के आचरण को देख भार्यासहित वह धर्मज्ञ साधु बनिया अत्यन्त शोक में हो गया और सोचने लगा या तो भगवान सत्यनारायण ने यह अपहरण किया है अथवा हम सभी भगवान सत्यदेव की माया से मोहित हो गये हैं। अपनी धन शक्ति के अनुसार मैं भगवान श्री सत्यनारायण की पूजा करूंगा। सभी को बुलाकर इस प्रकार कहकर उसने अपने मन की इच्छा प्रकट की और बारम्बार भगवान सत्यदेव को दण्डवत प्रणाम किया। इससे दीनों के परिपालक भगवान सत्यदेव प्रसन्न हो गये। भक्तवत्सल भगवान ने कृपापूर्वक कहा तुम्हारी कन्या प्रसाद छोड़कर अपने पति को देखने चली आयी है निश्चय ही इसी कारण उसका पति अदृश्य हो गया है। यदि घर जाकर प्रसाद ग्रहण करके वह पुनः आये तो हे साधु बनिया तुम्हारी पुत्री पति को प्राप्त करेगी। कन्या कलावती भी आकाश मण्डल से ऐसी वाणी सुनकर शीघ्र ही घर गयी और उसने प्रसाद ग्रहण किया। पुनः आकर स्वजनों तथा अपने पति को देखा। तब कलावती कन्या ने अपने पिता से कहा अब तो घर चलें विलम्ब क्यों कर रहे हैं कन्या की वह बात सुनकर वणिकपुत्र संतुष्ट हो गया और विधि-विधान से भगवान सत्यनारायण का पूजन करके धन तथा बन्धु-बान्धवों के साथ अपने घर गया। तदनन्तर पूर्णिमा तथा संक्रान्ति पर्वों पर भगवान सत्यनारायण का पूजन करते हुए इस लोक में सुख भोगकर अन्त में वह बैकुण्ठलोक में चला गया।
पांचवा अध्याय
श्रीसूत जी बोले श्रेष्ठ मुनियों! अब इसके बाद मैं दूसरी कथा सुनाता हूं आप लोग सुनें। अपनी प्रजा का पालन करने में तत्पर तुंगध्वज नामक एक राजा था। उसने सत्यदेव के प्रसाद का परित्याग करके दुख प्राप्त किया। एक बाद वह वन में जाकर और वहां बहुत से पशुओं को मारकर वटवृक्ष के नीचे आया। वहां उसने देखा कि गोपगण बन्धु-बान्धवों के साथ संतुष्ट होकर भक्तिपूर्वक भगवान सत्यदेव की पूजा कर रहे हैं। राजा यह देखकर भी अहंकारवश न तो वहां गया और न उसे भगवान सत्यनारायण को प्रणाम ही किया। पूजन के बाद सभी गोपगण भगवान का प्रसाद राजा के समीप रखकर वहां से लौट आये और इच्छानुसार उन सभी ने भगवान का प्रसाद ग्रहण किया। इधर राजा को प्रसाद का परित्याग करने से बहुत दुख हुआ। उसका सम्पूर्ण धन-धान्य एवं सभी सौ पुत्र नष्ट हो गये। राजा ने मन में यह निश्चय किया कि अवश्य ही भगवान सत्यनारायण ने हमारा नाश कर दिया है। इसलिए मुझे वहां जाना चाहिए जहां श्री सत्यनारायण का पूजन हो रहा था। ऐसा मन में निश्चय करके वह राजा गोपगणों के समीप गया और उसने गोपगणों के साथ भक्ति युक्त होकर विधिपूर्वक भगवान सत्यदेव की पूजा की। भगवान सत्यदेव की कृपा से वह पुनः धन और पुत्रों से सम्पन्न हो गया तथा इस लोक में सभी सुखों का उपभोग कर अन्त में वैकुण्ठलोक को प्राप्त हुआ। महान प्रज्ञासम्पन्न शतानन्द नाम के ब्राह्मण सत्यनारायण व्रत करने के प्रभाव से दूसे जन्म में सुदामा नामक ब्राह्मण हुए और उस जन्म में भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। लकड़हारा भिल्ल गुहों का राजा हुआ और अगले जन्म में उसने भगवान श्रीराम की सेवा करके मोक्ष प्राप्त किया। महाराज उल्कामुख दूसरे जन्म में राजा दशरथ हुए जिन्होंने श्रीरंगनाथजी की पूजा करके अन्त में वैकुण्ठ प्राप्त किया। इसी प्रकार धार्मिक और सत्यव्रती साधु पिछले जन्म के सत्यव्रत के प्रभाव से दूसरे जन्म में मोरध्वज नामक राजा हुआ। उसने आरे से चीरकर अपने पुत्र की आधी देह भगवान विष्णु को अर्पित कर मोक्ष प्राप्त किया। महाराजा तुंगध्वज जन्मान्तर में स्वायम्भुव मनु हुए और भगवत्सम्बन्धी सम्पूर्ण कार्यों का अनुष्ठान करके वैकुण्ठलोक को प्राप्त हुए। जो गोपगण थे वे सब जन्मान्तर में व्रजमण्डल में निवास करने वाले गोप हुए और सभी राक्षसों का संहार करके उन्होंने भी भगवान का शाश्वत धाम गोलोक प्राप्त किया।