श्रीमद्भागवत गीता में है हर समस्याओं का समाधान- Shrimad Bhagwat Geeta have a solution to every problems

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श्रीमद्भागवत गीता में है, हर समस्याओं का समाधान
(There is a solution to every problems in the Shrimad Bhagwat Geeta)

भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता के द्वारा अर्जुन की सभी समस्याओं का समाधान के साथ-साथ जीवन में जीने के उददेश्य बताए। श्रीमद्भागवत गीता के 18 अध्यायों में सभी समस्याओं का समाधान और कामनाओं की पूर्ति करने का रास्ता बताया गया है। यदि किसी को बहुत ज्यादा चिंतित हैं या फिर कहें आपको किसी कारणवश अपनी मृत्यु को लेकर डर बना रहता है तो श्रीमद्भागवत गीता के आठवें अध्याय का पाठ पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ करना चाहिए। यदि किसी को अपने कठिन समय को लेकर किसी भी प्रकार से पीड़ित है तो श्रीमद्भागवत गीता के छठे अध्याय का पाठ करना चाहिए।

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यदि किसी को अपने नौकरी, व्यपार की चिंता बनी है या फिर काफी समय से बेरोजगार चल रहे हैं। यदि लगता है कि अपनी क्षमता के अनुसार अपने कार्य को अंजाम नहीं दे पा रहे हैं तो गीता के नौवें अध्याय का पाठ करना चाहिए। यदि लगता है कि तमाम प्रयासों के बावजूद कार्य के अनुरूप लाभ नहीं मिल रहा है तो गीता के चैदहवें अध्याय का पाठ करना चाहिए। इस उपाय से सारे कार्य के अनुरूप ही नहीं बल्कि उससे कहीं ज्यादा लाभ मिलने की संभावनाएं बनने लगती है। 

मृत्यु का भय दूर हो जाता है

अर्जुन ने कहा, हे पुरुषोतम! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म किसको कहते है? कर्म क्या है? अधिभूत क्या और अधिदैव क्या कहाता है? हे मधुसूदन! अधियज्ञ कैसा है और इस देह में अधिदेह कौन सा है? मरने के समय में स्थिर चित वाले लोग तुमको कैसे जान जाते है, भगवान श्रीकृष्ण बोले जो अक्षर और परम है वही ब्रह्म है प्रत्येक वस्तु का स्वभाव अध्यात्म कहता है और समस्त चराचर की उत्पति करने वाला जो विसर्ग है वह कर्म है, जो देह आदि नाशवान वस्तु है वह अभिभूत कहता है विश्व रूप जो विराट पुरुष है वह अधिदेव है इस देह में मैं ही अधियज्ञ हूँ, जो अंतकाल में मेरा ध्यान करता हुआ और शरीर त्याग करता है वह निःसंदेह मेरे स्वरूप को पाता है, हे कुंती पुत्र! अंत समय मनुष्य जिस वस्तु का स्मरण करता हुआ शरीर त्यगता है वह उसी को पाता है, इस कारण सदैव मुझ ही में मन और बुद्धि को लगाकर मेरा ही स्मरण करते हुए संग्राम करो, तुम निःसंदेह मुझको आ मिलोगे। 

हे पार्थ! अभ्यास रूप योग से युक्त हो दूसरी ओर न जाने वाले मन से सदा चिन्तन करता हुआ पुरुष परम् और दिव्य पुरुष को ही प्राप्त होता है, अतएव जो अंत समय में मन को एकाग्र कर भक्ति पूर्वक योगाभ्यास के बल से दोनों के मध्य भाग में प्राण को चढ़ाकर, सर्वज्ञ अन्नादि सम्पूर्ण जगत के नियंता, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म तर, सबके पोषक सबके पोषक अचिन्त्य स्वरूप, सूर्य के सामान प्रकाशमान तमोगुण से रहित परम् पुरुष का ध्यान करता है वह उसको मिलता है वेद के जानने वाले जिसको अक्षर कहते है, सन्यासी जिसमे प्रवेश करते है तथा जिसको चाहने वाले ब्रह्मचर्य का आचरण करते है, उस परम् पद को तुमसे संक्षेप में कहता हूँ, सब इन्द्रियों को रोककर मनको हृदय में धारणकर प्राण को मस्तक में ले जाकर समाधि योग में स्थित इस अक्षर का उच्चारण करता हुआ देह को त्यागता है, उसे मोक्ष रूप उत्तम गति प्राप्त होती है। 

हे पार्थ! जो मुझ में मन लगाकर नित्य-प्रति मेरा स्मरण करते है, सदैव स्मरण करने वाले योगी को मैं बहुत सरलता से प्राप्त होता हूँ। मुझको प्राप्त होने पर परम् सिद्धि को प्राप्त करने वाले महात्मागण फिर यह जन्म धारण नहीं करते। जो नाशवान और दुःख का घर है, हे अर्जुन! ब्रह्मलोक जितने लोक है वहां से लौटना पड़ता है परन्तु मुझमें मिलने से फिर जन्म नहीं लेता, हजार महयोगियों की एक रात्रि ब्रह्म की होती है जो इन बातों को जानते है वह सब ज्ञाता है, ब्रह्म का दिन होने पर अव्यक्त से सब व्यक्तियों का उदय होता है और रात को उसी में लय हो जाता है। हे पार्थ! समस्त चराचर वस्तुओं का यह समुदाय दिन में बार-बार उत्पन्न होकर रात्रि के आगमन में लीन हो जाता है। अव्यक्त से परे दूसरा सनातन अव्यक्त है, जो इन सब के नष्ट होने पर भी कभी नष्ट है होता उस अव्यक्त को ही अक्षर कहते है। वही वह परम् गति है जिसको प्राप्त करके फिर संसार में नहीं जन्मते वही मेरा परम् धाम है। हे पार्थ! जिसके अंतर्गत सब प्राणी है और जसने इस समस्त जगत का विस्तार कर रखा है वह श्रेष्ठ पुरुष अनन्य भक्ति में ही मिलता है। हे भरतषर्भ! जिस काल में लौट आते है अब वह काल बतलाता हूँ। जिस काल में अग्नि, प्रकाश और दिन शुक्ल पक्ष हो ऐसे उत्तरायण के ६ महीने में मृत्यु को प्राप्त हुए ब्रह्मादिक ब्रह्म को प्राप्त होते है।

रात कृषणपक्ष, दक्षिणयन के ६ महीने इनके मध्य गमन करने वाले चन्द्रमा की ज्योति को पहुंचते है और लौट आते है। संसार की नित्य चलने वाली शुक्ल और कृष्ण नाम की दो गतियां है एक से आने पर लौटने पड़ता है और दूसरी पर फिर लौटने नहीं होता है। हे पार्थ! योगी इन दोनों गतियों का तत्व जानता है इसी से मोह में नहीं पड़ता अतएव हे अर्जुन! तुम सदा योगयुक्त हो, वेद, यज्ञ, तप और दान में जो पुण्य फल बतलाय गए है, योगी उन सबसे अधिक ऐश्वर्य प्राप्त है और सर्वोत्तम आदि स्थान पाता है। 

श्री नारायणजी बोले-हे लक्ष्मी! दक्षिण देश नर्वदा नदी के तट पर एक नगर है उनमें सुशर्मा नामक एक बड़ा धनवान विप्र रहता था। एक दिन उसने एक संत से पूछा ऋषि जी मेरे संतान नहीं है, तब ऋषिश्वर ने कहा तू अश्वमेघ यज्ञ कर, बकरा देवी को चढ़ा, देवी तुझको पुत्र देगी, तब उस ब्राह्मण ने यज्ञ करने को एक बकरा मोल लिया उसको स्नान कर मेवा खिलाया जब उसको मारने लगा तब बकरा कह -कह शब्द करके हंसा, तब ब्राह्मण ने पूछा हे बकरे! तू क्योँ  हँसा है तब बकरे ने कहा पिछले जन्म में मेरे भी संतान नहीं थी, एक ब्राह्मण में मुझे भी अश्वमेघ का यज्ञ करने को कहा था, सारी नगरी में बकरी का बच्चा दूध चूसता था उस बच्चे समेत बकरी को मोल ले लिया। जब उसको बकरी के स्तन से छुडाकर यज्ञ करने लगा तब बकरी बोली अरे ब्रह्मण तू ब्राह्मण नहीं जो मेरे पुत्र को होम में देने लगा है तू महापापी है। यह कभी सुना है कि पराये पुत्र को मारने से किसी को पुत्र पाया है, तू अपनी संतान के लिए मेरे पुत्र को मारता है तू निर्दयी है, तेरे पुत्र नहीं होगा। 

वह बकरी कहती रही पर मैंने होम कर दिया, बकरी ने श्राप दिया कि तेरा गाला भी इसी तरह कटेगा, इतना कह बकरी तड़फ कर मर गई। कई दिन बीते मेरा भी काल हुआ यमदूत मारते-मारते धर्मराज के पास ले गये, तब धर्मराज ने कहा इसको नर्क में दे दो। यह बड़ा पापी है फिर नरक भोगकर बानर की योनि दी, एक बाजीगर ने मोल ले लिया, यह मेरे गले में रज्जु दाल कर द्वार- द्वार सारा दिन मांगता फिरे, खाने को थोड़ा दिया करे जब बानर की देह निकली तो कुत्ते की देह मिली। एक दिन मैंने किसी की रोटी चुरा कर खाई, उसने ऐसी लाठी मारी की पीठ टूट गई, उस दुःख से मेरे मृत्यु हो गई। फिर घोड़े की देह पाई उस घोड़े को एक भटियारे ने मोल लिया वह सारा दिन चलाया करे। खाने- पिने को खबर ने ले वे साँझ समय छोटी से रस्सी के साथ बांध छोड़े, ऐसा बांधे कि मैं मक्खी भी न उड़ा सकू। 

एक दिन दो बालक एक कन्या मेरे ऊपर चढ़कर चलाने लगे वहाँ कीचड़ अधिक था फँस गया, ऊपर से वह मुझे मारने लगे मेरी मृत्यु हो गई। इस भांति अनेक जन्म भोगे, अब बकरे का जन्म पाया मैनें जाना था जो इसने मुझे मोल लिया है मैं सुख पाउँगा तू छुरी ले कर मारने लगा है, तब ब्रह्मण ने कहा, हे बकरे! तुझे भी जान प्यारी है अब मैं अपने नेत्रों से देखी हुई कहता हूँ कुरुक्षेत्र में चंद्र सुशर्मा राजा स्नान कर ने आया, उसने ब्रह्मण से पूछा ग्रहण में कौन सा दान करूँ, उसने कहा राजन काले पुरुष का दान कर तब राजा ने काले लोहे का पुरुष बनवाया नेत्रों को लाल जड़वा सोने के भूषण पहना का तैयार किया। वह पुरुष कह-कह कर हंसा, राजा डर गया और कहा की कोई बड़ा अवगुण है जो लोहे का पुरुष हंसा तब राजा ने बहुत दान किया फिर हंसा, ब्राह्मण को कहा हे ब्राह्मण तू मुझे लेगा, तब ब्राह्मण ने कहा मैंने तेरे सरीखे कई पचाये है। 

तब काले पुरुष ने कहा तू मुझको वह कारण बता जिस कारण से तू ने अनेक दान पाचय है, तब विप्र ने कहा जो गुण मेरे में है सो मैं ही जानता हूँ। तब वह काला पुरुष कह-कह कर फट गया उसमें से एक और कलिका की मूर्ति निकल आई तब विप्र ने श्री गीताजी के आठवां अध्याय का पाठ किया। उस कलिका की मूर्ति ने सुन कर देह पलटी जल की अंजलि भर के उस पर छिडकी जल के छिड़कने से तत्काल उस की देह ने देवदेहि पाई, विमान पर बैठ कर बैकुंठ को गई। तब उस राजा ने कहा तुम्हारे में भी कोई ऐसा है जिसके शब्द से मैं भी अधर्म देह से मुक्ति पाऊं तब उस विप्र ने कहा मैं वेदपाठी हूँ। उस नगर में एक साधु भी गीता जी का पाठ किया करता था। अजा ने उससे आठवां अध्याय का पाठ श्रवण किया और देह को मुक्ति प्राप्त हुई और कहता गया की हे ब्राह्मण तू भी गीता जी का पाठ किया कर तुम्हरा भी कल्याण होगा, तब वह ब्राह्मण श्री गीता जी का पाठ करने लगा। 

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