माँ अन्नपूर्णा को माँ जगदम्बा का ही एक रूप माना गया है, जिनसे सम्पूर्ण विश्व का संचालन होता है। इन्हीं के जगदम्बा स्वरूप से माँ अन्नपूर्णा सारे संसार का भरण-पोषण करती है। माँ अन्नपूर्णा ने माँ पार्वती के रूप में भगवान शिव से शादी की थी। शादी के बाद शिव ने कैलाश पर्वत पर रहने का फैसला किया लेकिन हिमालय की पुत्री माँ पार्वती को कैलाश यानी कि अपने मायके में रहना पसंद नहीं आया इसलिए उन्होंने काशी जो भोलेनाथ की नगरी कही जाती है, वहाँ रहने की इच्छा बताई और भगवान शिव उन्हें यहां लेकर आ गए। इसलिए काशी को माँ अन्नपूर्णा की नगरी कहा जाता है और कहा जाता है कि भगवान भोलेनाथ की नगरी में कोई भी भूखा नहीं रहता है।
माँ अन्नपूर्णा मन्त्र
ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं भगवति अन्नपूर्णे नमः।।
ऊँ सर्वाबाधा विनिर्मुक्तो धनधान्यः सुतान्वितः।
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः।।
माता अन्नपूर्णा का 21 दिवसीय यह व्रत अत्यन्त चमत्कारी फल देने वाला है। यह व्रत मार्गशीर्ष मास में शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से शुरू कर 21 दिनों तक किया जाता है। इस व्रत में अगर व्रत न कर सकें तो एक समय भोजन करके भी व्रत का पालन किया जा सकता है। इस व्रत में सुबह घी का दीपक जला कर माता अन्नपूर्णा की कथा पढ़ें और भोग लगाएं ।
ज्ञान वैराग्य सिध्यर्थं भिक्षां देहि च पार्वति।।
माता च पार्वति देवी पिता देवो महेश्वरः।
माँ अन्नपूर्णा की व्रत कथा
एक समय की बात है। काशी निवासी धनंजय की पत्नी का नाम सुलक्षणा था। उसे अन्य सब सुख प्राप्त थे, केवल निर्धनता ही उसके दुःख का कारण थी। यह दुःख उसे हर समय सताता था। एक दिन सुलक्षणा पति से बोली- स्वामी! आप कुछ उद्यम करो तो काम चले। इस प्रकार कब तक काम चलेगा? सुलक्षण्णा की बात धनंजय के मन में बैठ और वह उसी दिन विश्वनाथ शंकर जी को प्रसन्न करने के लिए बैठ गया और कहने लगा- हे देवाधिदेव विश्वेश्वर! मुझे पूजा-पाठ कुछ आता नहीं है, केवल तुम्हारे भरोसे बैठा हूँ। इतनी विनती करके वह दो-तीन दिन भूखा-प्यासा बैठा रहा। यह देखकर भगवान शंकर ने उसके कान में अन्नपूर्णा तीन बार कहा। यह कौन, क्या कह गया? इसी सोच में धनंजय पड़ गया कि मन्दिर से आते ब्राह्मणों को देखकर पूछने लगा- पंडितजी! अन्नपूर्णा कौन है? ब्राह्मणों ने कहा- तू अन्न छोड़ बैठा है, सो तुझे अन्न की ही बात सूझती है। जा घर जाकर अन्न ग्रहण कर। धनंजय घर गया, स्त्री से सारी बात कही, वह बोली-नाथ! चिंता मत करो, स्वयं शंकरजी ने यह मंत्र दिया है। वे स्वयं ही खुलासा करेंगे। आप फिर जाकर उनकी आराधना करो। धनंजय फिर जैसा का तैसा पूजा में बैठ गया। रात्रि में शंकर जी ने आज्ञा दी। कहा- तू पूर्व दिशा में चला जा।
वह अन्नपूर्णा का नाम जपता जाता और रास्ते में फल खाता, झरनों का पानी पीता जाता। इस प्रकार कितने ही दिनों तक चलता गया। वहां उसे चांदी सी चमकती बन की शोभा देखने में आई। सुन्दर सरोवर देखने में या, उसके किनारे कितनी ही अप्सराएं झुण्ड बनाए बैठीं थीं। एक कथा कहती थीं। और सब ‘मां अन्नपूर्णा’ इस प्रकार बार-बार कहती थी। यह अगहन मास की उजेली रात्रि थी और आज से ही व्रत का आरम्भ था। जिस शब्द की खोज करने वह निकला था, वह उसे वहां सुनने को मिला। धनंजय ने उनके पास जाकर पूछा- हे देवियो! आप यह क्या करती हो? उन सबने कहा हम सब मां अन्नपूर्णा का व्रत करती हैं। व्रत करने से गई पूजा क्या होता है? यह किसी ने किया भी है? इसे कब किया जाए? कैसा व्रत है में और कैसी विधि है? मुझसे भी कहो। वे कहने लगीं- इस व्रत को सब कोई कर सकते हैं। इक्कीस दिन तक के लिए 21 गांठ का सूत लेना चाहिए। 21 दिन यदि न बनें तो एक दिन उपवास करें, यह भी न बनें तो केवल कथा सुनकर प्रसाद लें। निराहार रहकर कथा कहें, कथा सुनने वाला कोई न मिले तो पीपल के पत्तों को रख सुपारी या घृत कुमारी (गुवारपाठ) वृक्ष को सामने कर दीपक को साक्षी कर सूर्य, गाय, तुलसी या महादेव को बिना कथा सुनाए मुख में दाना न डालें। यदि भूल से कुछ पड़ जाए तो एक दिवस फिर उपवास करें। व्रत के दिन क्रोध न करें और झूठ न बोलें। धनंजय बोला- इस व्रत के करने से क्या होगा? वे कहने लगीं- इसके करने से अन्धों को नेत्र मिले, लूलों को हाथ मिले, निर्धन के घर धन आए, बांझी को संतान मिले, मूर्ख को विद्या आए, जो जिस कामना से व्रत करे, मां उसकी इच्छा पूरी करती है। वह कहने लगा- बहिनों! मेरे भी धन नहीं है, विद्या नहीं है, कुछ भी तो नहीं है, मैं तो दुखिया ब्राह्मण हूँ, मुझे इस व्रत का सूत दोगी? हां भाई तेरा कल्याण हो, तुझे देंगी, ले इस व्रत का मंगलसूत ले।
धनंजय ने व्रत किया। व्रत पूरा हुआ, तभी सरोवर में से 21 खण्ड की सुवर्ण सीढ़ी हीरा मोती जड़ी हुई प्रकट हुई। धनंजय जय ‘अन्नपूर्णा’ ‘अन्नपूर्णा’ कहता जाता था। इस प्रकार कितनी ही सीढियां उतर गया तो क्या देखता है कि करोड़ों सूर्य से प्रकाशमान अन्नपूर्णा का मन्दिर है, उसके सामने सुवर्ण सिंघासन पर माता अन्नपूर्णा विराजमान हैं। सामने भिक्षा हेतु शंकर भगवान खड़े हैं। देवांगनाएं चंवर डुलाती हैं। कितनी ही हथियार बांधे पहरा देती हैं। धनंजय दौड़कर जगदम्बा के चरणों में गिर गया। देवी उसके मन का क्लेश जान गईं। धनंजय कहने लगा- माता! आप तो अन्तर्यामिनी हो। आपको अपनी दशा क्या बताऊँ? माता बोली-मेरा व्रत किया है, जा संसार तेरा सत्कार करेगा। माता ने धनंजय की जिह्नवा पर बीज मंत्र लिख दिया। अब तो उसके रोम-रोम में विद्या प्रकट हो गई। इतने में क्या देखता है कि वह काशी विश्वनाथ के मन्दिर में खड़ा है। मां का वरदान ले धनंजय घर आया। सुलक्षणा से सब बात कही। माता जी की कृपा से उसके घर में सम्पत्ति उमड़ने लगी। छोटा सा घर बहुत बड़ा गिना जाने लगा। जैसे शहद के छत्ते में मक्खियां जमा होती हैं, उसी प्रकार अनेक सगे सम्बंधी आकर उसकी बड़ाई करने लगे। कहने लगे-इतना धन और इतना बड़ा घर, सुन्दर संतान नहीं तो इस कमाई का कौन भोग करेगा? सुलक्षणा से संतान नहीं है, इसलिए तुम दूसरा विवाह करो। अनिच्छा होते हुए भी धनंजय को दूसरा विवाह करना पड़ा और सती सुलक्षणा को सौत का दुःख उठाना पड़ा। इस प्रकार दिन बीतते गये फिर अगहन मास आया। नये बंधन से बंधे पति से सुलक्षणा ने कहलाया कि हम व्रत के प्रभाव से सुखी हुए हैं। इस कारण यह व्रत छोड़ना नहीं चाहिए। यह माता जी का प्रताप है। जो हम इतने सम्पन्न और सुखी हैं। सुलक्षणा की बात सुन धनंजय उसके यहां आया और व्रत में बैठ गया।
नयी बहू को इस व्रत की खबर नहीं थी। वह धनंजय के आने की राह देख रही थी। दिन बीतते गये और व्रत पूर्ण होने में तीन दिवस बाकी थे कि नयी बहू को खबर पड़ी। उसके मन में ईष्र्या की ज्वाला दहक रही थी। सुलक्षणा के घर आ पहुँची ओैर उसने वहां भगदड़ मचा दी। वह धनंजय को अपने साथ ले गई। नये घर में धनंजय को थोड़ी देर के लिए निद्रा ने आ दबाया। इसी समय नई बहू ने उसका व्रत का सूत तोड़कर आग में फेंक दिया। अब तो माता जी का कोप जाग गया। घर में अकस्मात आग लग गई, सब कुछ जलकर खाक हो गया। सुलक्षणा जान गई और पति को फिर अपने घर ले आई। नई बहू रूठ कर पिता के घर जा बैठी। पति को परमेश्वर मानने वाली सुलक्षणा बोली- नाथ! घबड़ाना नहीं। माता जी की कृपा अलौकिक है। पुत्र कुपुत्र हो जाता है पर माता कुमाता नहीं होती। अब आप श्रद्धा और भक्ति से आराधना शुरू करो। वे जरूर हमारा कल्याण करेंगी। धनंजय फिर माता के पीछे पड़ गया। फिर वहीं सरोवर सीढ़ी प्रकट हुई, उसमें मां अन्नपूर्णा कहकर वह उतर गया। वहां जा माता जी के चरणों में रुदन करने लगा। माता प्रसन्न हो बोलीं-यह मेरी स्वर्ण की मूर्ति ले, उसकी पूजा करना, तू फिर सुखी हो जायेगा, जा तुझे मेरा आशीर्वाद है। तेरी स्त्री सुलक्षणा ने श्रद्धा से मेरा व्रत किया है, उसे मैंने पुत्र दिया है। धनंजय ने आँखें खोलीं तो खुद को काशी विश्वनाथ के मन्दिर में खड़ा पाया। वहां से फिर उसी प्रकार घर को आया। इधर सुलक्षणा के दिन चढ़े और महीने पूरे होते ही पुत्र का जन्म हुआ। गांव में आश्चर्य की लहर दौड़ गई। मानता आने लगा। इस प्रकार उसी गांव के निःसंतान सेठ के पुत्र होने पर उसने माता अन्नपूर्णा का मन्दिर बनवा दिया, उसमें माता जी धूमधाम से पधारीं, यज्ञ किया और धनंजय को मन्दिर के आचार्य का पद दे दिया। जीविका के लिए मन्दिर की दक्षिणा और रहने के लिए बड़ा सुन्दर सा भवन दिया। धनंजय स्त्री-पुत्र सहित वहां रहने लगा। माता जी की चढ़ावे में भरपूर आमदनी होने लगी। उधर नई बहू के पिता के घर डाका पड़ा, सब लुट गया, वे भीख मांगकर पेट भरने लगे। सुलक्षणा ने यह सुना तो उन्हे बुला भेजा, अलग घर में रख लिया और उनके अन्न-वस्त्र का प्रबंध कर दिया। धनंजय, सुलक्षणा और उसका पुत्र माता जी की कृपा से आनन्द से रहने लगे।
माँ अन्नपूर्णा की आरती
जो नहीं ध्यावे तुम्हें अम्बिके, कहां उसे विश्राम।
अन्नपूर्णा देवी नाम तिहारो, लेत होत सब काम।
बारम्बार प्रणाम, मैया बारम्बार प्रणाम।
प्रलय युगान्तर और जन्मान्तर, कालान्तर तक नाम ।
सुर सुरों की रचना करती, कहाँ कृष्ण कहाँ राम।
बारम्बार प्रणाम, मैया बारम्बार प्रणाम।
चूमहि चरण चतुर चतुरानन, चारु चक्रधर श्याम।
चंद्रचूड़ चन्द्रानन चाकर, शोभा लखहि ललाम।
बारम्बार प्रणाम, मैया बारम्बार प्रणाम।
देवि देव! दयनीय दशा में, दया-दया तब नाम।
त्राहि-त्राहि शरणागत वत्सल,शरण रूप तब धाम।
बारम्बार प्रणाम, मैया बारम्बार प्रणाम।
श्रीं, ह्रीं श्रद्धा श्री ऐ विद्या, श्री क्लीं कमला काम ।
कांति, भ्रांतिमयी, कांति शांतिमयी, वर दे तू निष्काम।
बारम्बार प्रणाम,मैया बारम्बार प्रणाम।
माता अन्नपूर्णा की जय
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