विश्वकर्मा के पुत्र नल-नील-vishwakarma ke putra nal aur nil

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विश्वकर्मा के पुत्र नल-नील
(vishwakarma ke putra nal aur nil)

एक दिन अनल अर्थात् नल तथा अनील अर्थात् नील ने मुनिन्द्र जी का सत्संग सुना। दोनों भक्त आपस में मौसी के पुत्र थे। माता-पिता का देहान्त हो चुका था। नल तथा नील दोनों शारीरिक व मानसिक रोग से अत्यधिक पीड़ित थे। सर्व ऋषियों व सन्तों से कष्ट निवारण की प्रार्थना कर चुके थे। सर्व ऋषियों व सन्तों ने बताया था कि यह आप का पाप कर्म का दण्ड है, यह आपको भोगना ही पड़ेगा। इसका कोई समाधान नहीं है। दोनों जीवन से निराश होकर मृत्यु की प्रतिक्षा कर रहे थे। सत्संग के उपरांत ज्यों ही दोनों ने मुनिन्द्र ऋषि जी के चरण छुए तथा मुनिन्द्र जी ने सिर पर हाथ रखा तो दोनों का असाध्य रोग दूर हो गया अर्थात् दोनों नल तथा नील स्वस्थ हो गए। इस अद्धभुत चमत्कार को देख कर प्रभु के चरणों में गिर कर घण्टों रोते रहे तथा कहा आज हमें प्रभु मिल गया। जिसकी हमें वर्षों से खोज थी उससे प्रभावित होकर ऋषि मुनिन्द्र जी से नाम (दीक्षा) ले लिया मुनिन्द्र जी के साथ ही सेवा में रहने लगे। पहले ऋषियों व संतों का समागम पानी की व्यवस्था देख कर नदी के किनारे होता था। 

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नल और नील दोनों बहुत प्रभु प्रेमी तथा भोली आत्माएँ थी। परमात्मा में श्रद्धा बहुत हो गई थी। सेवा बहुत किया करते थे। समागमों में रोगी व वृद्ध व विकलांग भक्तजन आते तो उनके कपड़े धोते तथा बर्तन साफ करते। उनके लोटे और गिलास साफ कर देते थे। परंतु थे भोले से दिमाग के। कपड़े धोने लग जाते तो सत्संग में जो प्रभु की कथा सुनी होती उसकी चर्चा करने लग जाते। दोनों भक्त प्रभु चर्चा में बहुत मस्त हो जाते और वस्तुएँ दरिया के जल में कब डूब जाती उनको पता भी नहीं चलता। किसी की चार वस्तु ले कर जाते तो दो वस्तु वापिस ला कर देते थे। भक्तजन कहते कि भाई आप सेवा तो बहुत करते हो, परंतु हमारा तो बहुत काम बिगाड़ देते हो। अब ये खोई हुई वस्तुएँ हम कहाँ से ले कर आयें? आप हमारी सेवा ही करनी छोड़ दो। हम अपनी सेवा आप ही कर लेंगे। नल तथा नील रोने लग जाते थे कि हमारी सेवा न छीनों। अब की बार नहीं खोएँगे। परन्तु फिर वही काम करते। प्रभु की चर्चा में लग जाते और वस्तुएँ डूब जाती। भक्तजनों ने मुनिन्द्र जी से प्रार्थना की कि कृप्या आप नल तथा नील को समझाओ। ये न तो मानते हैं और कहते हैं तो रोने लग जाते हैं। हमारी तो आधी भी वस्तुएँ वापिस नहीं लाते। बर्तन व वस्त्र धोते समय वे दोनों भगवान की चर्चा में मस्त हो जाते हैं और वस्तुएँ डूब जाती हैं। मुनिन्द्र जी ने एक दो बार नल-नील को समझाया। वे रोने लग जाते थे कि साहेब हमारी ये सेवा न छीनों। सतगुरु मुनिन्द्र साहेब ने आशीर्वाद देते हुए कहा बेटा नल तथा नील खूब सेवा करो, आज के बाद आपके हाथ से कोई भी वस्तु चाहे पत्थर या लोहा भी क्यों न हो जल में नहीं डुबेगी।

श्री रामचन्द्र जी अपनी वानर सेना के साथ लंका पहुंचना चाहते थे। श्री रामचन्द्र जी ने समुद्र देव से कई बार प्रार्थना की लेकिन समुद्र ने वानर सेना को निकलने के लिए रास्ता नहीं दिया। तब श्री रामचन्द्र जी ने समुद्र को सूखाने के लिए धनुष पर बाण चढ़ा लिया। इसके बाद डरकर समुद्र देव प्रकट हुए और उन्होंनेश्री रामचन्द्र जी को बताया कि आपकी सेना में नल-नील नाम के वानर हैं। वे जिस चीज को हाथ लगाते हैं वह पानी में डुबती नहीं है। उनकी मदद से आप समुद्र पर सेतु बांध सकते हैं।

समुद्र की बात सुनकर श्री रामचन्द्र जी ने नल-नील को बुलाया और समुद्र पर सेतु बांधने के लिए कहा। इसके बाद पूरी वानर सेना पत्थर लेकर आ रही थी और पत्थरों पर राम का नाम लिखकर नल और नल-नील समुद्र पर सेतु बनाने लगे कुछ ही समय में नल-नील ने समुद्र पर सेतु बांध दिया। इस सेतु की मदद से पूरी वानर सेना लंका पहुंच गई। ये पुल रामेश्वर से लंका तक बनाया गया, जो आज भी इंजीनियरिंग की बड़ी कलाकारी कही जाती है इसके पत्थर आज भी मिलते हैं। रावण और उसकी राक्षस सेना के खिलाफ श्री रामचन्द्र जी के नेतृत्व में युद्ध में नल और नील दोनों युद्ध लड़ते हैं। रावण के पुत्र मेघनाथ द्वारा चलाए गए बाणों से नल गंभीर तौर पर घायल भी होते हैं लेकिन बच जाते है। फिर कई राक्षसों का वध भी करते हैं। 

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