गरुड़ पुराण दूसरा अध्याय-Garuda Purana Dusra Adhyay

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गरुड़ पुराण दूसरा अध्याय
Garuda Purana Dusra Adhyay

गरुड़ जी ने कहा–हे केशव- यमलोक का मार्ग किस प्रकार दु:खदायी होता है। पापी लोग वहाँ किस प्रकार जाते हैं, वह मुझे बताइये। श्री भगवान बोले– हे गरुड़- दुख प्रदान करने वाले यममार्ग के विषय में मैं तुमसे कहता हूँ, मेरा भक्त होने पर भी तुम उसे सुनकर काँप उठोगे। यममार्ग में वृक्ष की छाया नहीं है, जहाँ प्राणी विश्राम कर सके। उस यममार्ग में अन्न आदि भी नहीं हैं, जिनसे कि वह अपने प्राणों की रक्षा कर सके? हे गरुड़- वहाँ कहीं जल भी नहीं दिखता, जिसे अत्यन्त तृषातुर वह जीव पी सके। वहाँ प्रलयकाल की भाँति बारहों सूर्य तपते रहते हैं। उस मार्ग में जाता हुआ पापी कभी बर्फीली हवा से पीड़ित होता है तथा कभी काँटे चुभते हैं और कभी महाविषधर सर्पों के द्वारा डसा जाता है। वह पापी कहीं सिंहों, व्याघ्रों और भयंकर कुत्तों द्वारा खाया जाता है, कहीं बिच्छुओं द्वारा डसा जाता है और कहीं उसे आग से जलाया जाता है। तब कहीं अति भयंकर महान असिपत्रवन नामक नरक में वह पहुँचता है, जो दो हजार योजन विस्तारवाला कहा गया है।

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वह वन कौओं, उल्लुओं, वटों (पक्षी विशेषों), गीधों, सरघों तथा डाँसों से व्याप्त है। उसमें चारों ओर दावाग्नि व्याप्त है, असिपत्र के पत्तों से वह जीव उस वन में छिन्न-भिन्न हो जाता है। कहीं अंधे कुएँ में गिरता है, कहीं विकट पर्वत से गिरता है, कहीं छुरे की धार पर चलता है तो कहीं कीलों के ऊपर चलता है। कहीं घने अन्धकार में गिरता है, कहीं उग्र (भय उत्पन्न करने वाले) जल में गिरता है, कहीं जोंको से भरे हुए कीचड़ में गिरता है तो कहीं जलते हुए कीचड़ में गिरता है। कहीं तपी हुई बालुका से व्याप्त और कहीं धधकते हुए ताम्रमय मार्ग, कहीं अंगार की राशि और कहीं अत्यधिक धुएँ से भरे हुए मार्ग पर उसे चलना पड़ता है। कहीं अंगार की वृष्टि होती है, कहीं बिजली गिरने के साथ शिलावृष्टि होती है, कहीं रक्त की, कहीं शस्त्र की और कहीं गर्म जल की वृष्टि होती है। कहीं खारे कीचड़ की वृष्टि होती है, मार्ग में कहीं गहरी खाई है, कहीं पर्वत-शिखरों की चढ़ाई है और कहीं कन्दराओं में प्रवेश करना पड़ता है। वहाँ मार्ग में कहीं घना अंधकार है तो कहीं दु:ख से चढ़ी जाने योग्य शिलाएँ हैं, कहीं मवाद, रक्त तथा विष्ठा से भरे हुए तालाब हैं। यम मार्ग के बीचोबीच अत्यन्त उग्र और घोर वैतरणी नदी बहती है। वह देखने पर दु:खदायिनी हो तो क्या आश्चर्य? उसकी वार्ता ही भय पैदा करने वाली है। वह सौ योजन चौड़ी है, उसमें पूय (पीब-मवाद) और शोणित (रक्त) बहते रहते हैं। हड्डियों के समूह से तट बने हैं अर्थात उसके तट पर हड्डियों का ढेर लगा रहता है। माँस और रक्त के कीचड़ वाली वह नदी दु:ख से पार की जाने वाली है।

अथाह गहरी और पापियों द्वारा दु:खपूर्वक पार की जाने वाली यह नदी केशरूपी सेवार से भरी होने के कारण दुर्गम है। वह विशालकाय ग्राहों (घड़ियालों) से व्याप्त है और सैकड़ो प्रकार के घोर पक्षियों से आवृत है। हे गरुड़-आये हुए पापी को देखकर वह नदी ज्वाला और धूम से भरकर कड़ाह में रखे घृत की भाँति खौलने लगती है। वह नदी सूई के समान मुख वाले भयानक कीड़ो से चारों ओर व्याप्त है। वज्र के समान चोंच वाले बड़े-बड़े गीध एवं कौओं से घिरी हुई है। वह नदी शिशुमार, मगर, जोंक, मछली, कछुए तथा अन्य मांसभक्षी जलचर– जीवों से भरी पड़ी है। उसके प्रवाह में गिरे हुए बहुत से पापी रोते-चिल्लाते हैं और हे भाई! हा पुत्र! हा तात!–इस प्रकार कहते हुए बार-बार विलाप करते हैं। भूख और प्यास से व्याकुल होकर पापी जीव रक्त का पान करते हैं। वह नदी झागपूर्ण रक्त के प्रवाह से व्याप्त, ममहाघोर, अत्यन्त गर्जना करने वाली, देखने में दु:ख पैदा करने वाली तथा भयावह है। उसके दर्शन मात्र से पापी चेतनाशून्य हो जाते हैं। बहुत से बिच्छू तथा काले सर्पों से व्याप्त उस नदी के बीच में गिरे हुए पापियों की रक्षा करने वाला कोई नहीं है। उसके सैकड़ों, हजारों भँवरों में पड़कर पापी पाताल में चले जाते हैं। क्षण भर पाताल में रहते हैं और एक क्षण में ही ऊपर चले आते हैं।

हे गरुड़- वह नदी पापियों के गिरने के लिए ही बनाई गई है। उसका पार नहीं दिखता। वह अत्यन्त दु:खपूर्वक तरने योग्य तथा बहुत दु:ख देने वाली है। इस प्रकार बहुत प्रकार के क्लेशों से व्याप्त अत्यन्त दु:खप्रद यममार्ग में रोते-चिल्लाते हुए दु:खी पापी जाते हैं। कुछ पापी पाश से बँधे होते हैं और कुछ अंकुश में फंसाकर खींचे जाते हैं, और कुछ शस्त्र के अग्र भाग से पीठ में छेदते हुए ले जाये जाते हैं। कुछ नाक के अग्र भाग में लगे हुए पाश से और कुछ कान में लगे हुए पाश से खीचे जाते हैं। कुछ काल पाश से खींचे जाते हैं और कुछ कौओं से खींचे जाते हैं। वे पापी गरदन, हाथ तथा पैर में जंजीर से बँधे हुए तथा अपनी पीठ पर लोहे के भार को ढोते हुए मार्ग पर चलते हैं। अत्यन्त घोर यमदूतों के द्वारा मुद्गरों से पीटे जाते हुए वे मुख से रक्त वमन करते हुए तथा वमन किये हुए रक्त को पुन: पीते हुए जाते हैं। उस समय अपने दुष्कर्मों को सोचते हुए प्राणी अत्यन्त ग्लानि का अनुभव करते हैं और अतीव दु:खित होकर यमलोक को जाते हैं।

इस प्रकार यममार्ग में जाता हुआ वह मन्दबुद्धि प्राणी हा पुत्र!, हा पौत्र ! इस प्रकार पुत्र और पौत्रों को पुकारते हुए, हाय-हाय इस प्रकार विलाप करते हुए पश्चाताप की ज्वाला से जलता रहता है। वह विचार करता है कि महान पुण्य के संबंध से मनुष्य-जन्म प्राप्त होता है, उसे प्राप्त कर भी मैंने धर्माचरण नहीं किया, यह मैंने क्या किया। मैंने दान दिया नहीं, अग्नि में हवन किया नहीं, तपस्या की नहीं, देवताओं की भी पूजा की नहीं, विधि-विधान से तीर्थ सेवा की नहीं, अत: हे जीव! जो तुमने किया है, उसी का फल भोगों। 

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