महर्षि वशिष्ठ-Maharshi Vashisht
ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी ब्रह्माजी के मानसपुत्र है। सृष्टि के प्रारम्भ में ही ब्रह्मा के प्राणो से उत्पन्न उन प्रारम्भिक दस मानसपुत्रो मे से वे एक हैं, जिनमें से देवर्षि नारद के अतिरिक्त शेष नौ प्रजापति हुए। १. मरीचि, २. अत्रि, ३. अंगिरा ४. पुलस्त्य ५. पुलह ६. क्रतु ७. भृगु ८. वशिष्ठ ९. दक्ष और १०. नारद ब्रह्मा के दसवें मानसपुत्र है। इनसे पहले ब्रह्माजी के मनसे संकल्प से कुमार चतुष्टय १. सनक २. सनन्दन ३. सनातन और ४. सनतकुमार उत्पन्न हुए थे परंतु इन चारो ने प्रजा सृष्टि अस्वीकार कर दी। सदा पांच वर्ष की अवस्था वाले बालक ही रहते है। भगवान् ब्रह्मा जी ने अपने नौ पुत्रो को प्रजापति नियुक्त किया। इन लोगो को प्रजाकी सृष्टि, संवर्घन तथा संरक्षण का दायित्व प्राप्त हुआ। केवल नारदजी ब्रह्मचारी बने रहे।
ब्रह्मा ने सृष्टि के प्रथम काल में ही वशिष्ठ जी को आदेश दिया वत्स! तुम सूर्य वंश का पौरोहित्य संभालों। वशिष्ठ जी को ब्रह्माजी की आज्ञा सुनकर प्रसन्नता नहीं हुई। उन्होने ब्रह्मा जी से कहा पौरोहित्य कर्म शास्त्र निन्दित है क्योकि इसमें लगे ब्राह्मण को पराश्रित रहना पडता है। वह आत्म चिंतन के स्थान पर यजमान के हित चिंतन में लगे रहने को बाध्य होता है। उसकी आजीविका यजमान पर निर्भर है, अतः यजमान की प्रसन्नत्ता का उसे ध्यान रखना पडता है। यजमान में यदि कृपणता, अश्रद्धा आ जाय तो पुरोहित में चाटुकारी, लोभ, छल आदि दोष आये बिना नहीं रह सकते। ब्राह्मण को सन्तुष्ट, तपस्वी होना चाहिये। तब वह पराये का भार लेका परमुुखापेक्षी क्यो बने? ब्रह्माजी ने समझाया साधु महात्मा थोड़े समय के लिए जिनका दर्शन पाने को कठिन से कठिन तपस्या करते है, वे परात्पर पुरूष इस सूर्यवंश मे श्रीराम रूप में आगे उत्पन्न होने वाले हैं। सूर्यवंश का पौरोहित्य स्वीकार करने से तुम्हें उनका सानिध्य, उनका आचार्यंत्व प्राप्त होगा। वशिष्ठ जी ने यह सुना तो सहर्ष अपने पिता ब्रह्मा जी का आदेश स्वीकार कर लिया।
अयोध्या में 40 एकड़ की जमीन पर महर्षि वशिष्ठ का आश्रम था। आज के समय का वशिष्ठ आश्रम पुराने आश्रम का सिर्फ एक चैथाई हिस्सा ही रह गया है। ऐसा माना जाता है की आश्रम में एक कुआँ है जहां से सरयु नदी निकलती है। उस समय इक्ष्वाकू अयोध्या के राजा थे। वे शांति प्रिय राजा थे और जनता की भलाई के लिए ही शासन करते थे। एक समय अयोध्या में सूखा पड़ गया। राजा इक्ष्वाकू ने महर्षि वशिष्ठ से कहा कि आप ही इसका कुछ उपाय निकालिएं तब महर्षि वशिष्ठ ने विशेष यज्ञ किया और यज्ञ के संपन्न होते ही सरयू नदी आश्रम के कुएँ से बहने लगीं आज के समय में सरयू नदी को वाशिष्ठी और इक्श्वाकी के नाम से भी जाना जाता हैं ऐसा कहा जाता है की आश्रम के अन्दर का कुआँ नदी से जुड़ा हुआ है. जो यात्री तीर्थ यात्रा के लिए जाते है वे यहाँ पर इस कुएँ को देखने के लिए भी आते हैं। महर्षि वशिष्ठ के इस आश्रम को एक संपन्न तीर्थ स्थल माना जाता है।
महर्षि वशिष्ठ जी इन्द्र का यज्ञ पूर्ण होने पर लौटे तो महाराज निमि का यज्ञ चल रहा था। यह देखकर उन्हे लगा कि निमि ने मेरी अवज्ञा की है। उन्होने शाप दे दिया अपने को पण्डित मानकर मेरा तिरस्कार करनेवाले निमि का शरीर नष्ट हो जाय। निमि ने भी शाप दिया लोभवश धर्म को विस्मृत कर देने वाले आपका भी देहपात हो जाय। भूल दोनों ओर से हुई थी और वह शाप के रूप में बढ़ गयी। महाराज निमि को प्रारम्भ में कह देना चाहिए था कि वे लम्बे समय तक प्रतीक्षा नहीं करना चाहते। महर्षि वशिष्ठ जी भी यह तथ्य ध्यान देने योग्य नही माना कि अपना आचार्य या पुरोहित किसी कारण अनुपलब्ध हो तो यजमान कर्म विशेष के लिये दूसरे ब्राह्मण को आचार्य वरण का सकता है। यह दूसरा ब्राह्मण केवल उस कर्म के पूर्ण होन ेतक आचार्य रहता है। निमि का शरीरान्त हो गया। इसके बाद उनके शरीर का ऋषियोद्वारा मन्थन करने से एक बालक की उत्पत्ति हुई, जो श्मिथिः और श्विदेहः कहलाया। महर्षि वशिष्ठ जी ने आसन लगाया और योगधारणा के द्वारा अपने शरीर को भस्म कर दिया। थोड़े समय पश्चात् भगवान ब्रह्मा जी के यज्ञ में उर्वशी को देखकर सूर्य और वरुण का रेतः स्खलन हो गया। उन दोनो लोकपालो का सम्मिलित वीर्य यज्ञीय कलशपर पडा। उसका जो भाग कलश पर पडा था, उससे कुम्भज अगस्त्य उत्पन हुए और जो भाग नीचे गिरा, उससे वशिष्ठ जी ने पुनः शरीर प्राप्त किया। इसलिये वशिष्ठ जी को मैत्रा वरुणि भी कहते है। दूसरा शरीर प्राप्त करके वशिष्ठ जी ने पूरे सूर्यवंश का पौरोहित्य पद त्याग दिया। वे केवल इक्ष्वाकु वंश के पुरोहित बने रहे। अयोध्या के समीप ही उन्होने अपना आश्रम बना लिया।
क्षत्रिय राजा विश्वामित्र अपनी सारी सेना के साथ महर्षि वशिष्ठ जी के आश्रम से गुजरे। उनके साथ लाखो सैनिक थे। भूख प्यास से व्याकुल होने लगे। वशिष्ठ मुनि के पास शबला कामधेनु गौ थी। उस गौ ने सभी लोगों के लिए स्वादिष्ट भोजन उत्पन्न कर दिया, जिसे ग्रहणकर सेना सहित विश्वामित्र तृप्त हो गये और सोचने लगे महर्षि वशिष्ठ ने ऐसी सामर्थ्य कहाँ से प्राप्त कर ली। क्योंकि उनके पास धन नहीं दिखता। जब पता लगा कि यह सब शबला गाय का ही दिव्य प्रभाव है, तब उन्होंने शबला गौ को वशिष्ठ जी से माँगा और कहा कि मैं इसके बदले आपको पर्याप्त धन दूंगा पर वशिष्ठ जी तैयार नही हुए। तब राजा ने उस शबला गौ को जबर्दस्ती घसीटकर ले जाने के लिये अपने सिपाहियो को आज्ञा दी। वे लोग उसे घसीटने लगे। शबला ने उस समय रोकर महर्षि वशिष्ठ जी से कहा कि आपने मुझे इस राजा को क्यों दे दिया? इसपर वशिष्ठ जी जी ने कहा- मैंने तुम्हें नही दिया, यह राजा बलवान है। बलपूर्वक तुम्हे ले जाना चाहता है। मेरी बात नही मानता और तुम्हें बलपूर्वक घसीटता है। इस पर शबला ने अपने शरीर से अनन्त संख्या में यवन, खस, पह्लव, हूण आदि सैनिकों को उत्पन्न किया, जिन्होंने राजा विश्वामित्र की सेना को नष्ट कर दिया ।
विश्वामित्र समझ गए की ब्रह्मबल ही श्रेष्ठ है। क्षत्रिय की शक्ति तपस्वी ब्राह्मण का कुछ नहीं बिगाड़ सकती। अतः मैं इसी जन्म मे ब्राह्मणत्व प्राप्त करुंगा। विश्वामित्र अत्यन्त कठोर तप मे लग गये। सैकडों वर्ष के कठिन तप के पश्चात् प्रसन्न होकर ब्रह्माजी प्रकट हो गये। उन्होंने जब ब्रह्मा जी से अभीष्ट वर माँगा तब ब्रह्मा जी ने यह वरदान दिया वशिष्ठ जी जिस दिन तुम्हे ब्रह्मर्षि कहकर पुकारे उस दिन तुम ब्रह्मर्षि हो जाओगे। विश्वामित्र के लिये महर्षि वशिष्ठ जी से प्रार्थना करना बहुत अपमानजनक था। संयोगवश जब वशिष्ठ जी मिलते थे तो इन्हे राजर्षि कहते थे। अतः राजा विश्वामित्र वशिष्ठ जी के घोर शत्रु हो गये। एक राक्षस को प्रेरित करके उन्होने वशिष्ठ जी के सौ पुत्र मरवा दिये। स्वयं वशिष्ठ जी को अपमानित करने, नीचा दिखाने का अवसर ढूंढते रहने लगे। उनका हृदय हिंसा की प्रबल भावना से पूर्ण था। शस्त्र लेकर रात्रि मे छिपकर महर्षि वशिष्ठ जी को मारने निकले। दिन मे प्रत्यक्ष आक्रमण करके तो अनेक बार पराजित हो चुके ही थे। चमकीली रात्रि थी। कुटिया के बाहर पत्नी के साथ वशिष्ठ मुनि बैठे थे। अरुंधती जी ने कहा आज आकाश मे कैसा अद्भुत तेज है। वशिष्ठ जी बोले ऐसा ही निर्मल तेज आजकल विश्वामित्र जी के तप का है। बड़े तपस्वी महात्मा है विश्वामित्र जी विश्वामित्र ने जैसे ही वशिष्ठ जी की बात सुनी तो उनका ही हृदय उन्हे धिक्कार उठा की एकान्त में पत्नी के साथ बैठा जो अपने सौं पुत्रों के हत्यारे की प्रशंसा करता है, उस महापुरूष को मारने आया हूँ इस महापुरुष के चित्त में तो किसी के प्रति द्वेष है ही नहीं। शस्त्र त्याग दिए विश्वामित्र ने और दौडकर श्री वशिष्ठ जी चरणो में गिर पड़े। वशिष्ठ जी ने उनको झुककर उठाते हुए कहा उठिये ब्रह्मर्षि। जैसे ही ब्रह्मर्षि कहकर पुकारा वैसे ही विश्वामित्र का ह्रदय क्रोधरहित हो गया। ह्रदय मे भगवत प्रेम प्रकट हो गया।
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