माँ धूमावती इन्हे अलक्ष्मी या ज्येष्ठालक्ष्मी यानि लक्ष्मी की बड़ी बहन भी कहा जाता है। ज्येष्ठ मास शुक्ल पक्ष अष्टमी को माँ धूमावती जयन्ति के रूप में मनाया जाता है। माँ धूमावती विधवा स्वरूप में पूजी जाती हैं तथा इनका वाहन कौवा है और श्वेत वस्त्र धारण कि हुए खुले केश रुप में होती हैं। धूमावती महाविद्या ही ऐसी शक्ति हैं जो व्यक्ति की दीनहीन अवस्था का कारण हैं। विधवा के आचरण वाली यह महाशक्ति दुःख दारिद्र की स्वामिनी होते हुए भी अपने भक्तों पर कृपा करती हैं। महाविद्याओं में धूमावती महाविद्या का अपना महत्वपूर्ण स्थान है। अपने भक्तों को अभय देने वाली तथा शत्रुओं के लिए साक्षात् महाकाल स्वरूप है। धूमावती साधना के प्रभाव से शत्रु-नाश एवं बाधा-निवारण होता है। धूमावती साधना मूल रूप से तान्त्रिक साधना है। इस साधना के सिद्ध होने पर भूत-प्रेत, पिशाच व अन्य तन्त्र-बाधा के साधक व उसके परिवार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, अपितु उसकी प्रबल से प्रबल बाधाओं का भी निवारण होने लगता है। धूमावती का स्वरूप क्षुधा अर्थात् भूख से पीड़ित स्वरूप है और इन्हें अपने भक्षण के लिए कुछ न कुछ अवश्य चाहिए। जब कोई साधक भगवती धूमावती की साधना सम्पन्न करता है तो देवी प्रसन्न होकर उसके शत्रुओं का भक्षण कर लेती है और साधक को अभय प्रदान करती हैं। कौवे पर बैठी देवी का मुख्य अस्त्र सूप जिससे महाप्रलय कर देती है। शाप देने नष्ट करने व संहार करने की जितनी भी क्षमताएं है वह इस देवी के कारण ही है। क्रोधमय ऋषियों की मूल शक्ति ही धूमावती है जैसे दुर्वासा, अंगीरा, भृगु, परशुराम आदि। सृष्टि कलह के देवी होने के कारण इनको कलहप्रिय भी कहा जाता है।
चैमासा ही देवी का प्रमुख समय होता है जब इनको प्रसन्न किया जाता है। नरक चतुर्दशी देवी का ही दिन होता है जब माँ धूमावती पापियों को दण्डित करती है। नर्क चतुर्दशी पर घर का कूड़ा-करकट साफ कर उसे घर से बाहर कर अलक्ष्मी से प्रार्थना की जाती है की आप हमारे सारे दारिद्र लेकर जाय। ज्योतिष के अनुसार माँ धूमावती का संबंध केतु ग्रह तथा इनका नक्षत्र ज्येष्ठा है। इसलिए कारण इन्हें ज्येष्ठा भी कहा जाता है। अगर किसी व्यक्ति की कुण्डली में केतु ग्रह श्रेष्ठ जगह पर कार्यरत हो अथवा केतु ग्रह से सहयता मिल रही ही तो व्यक्ति के जीवन में दुख-दारिद्रय से छुटकारा मिलता है। केतु ग्रह की प्रबलता से व्यक्ति जीवन में समस्त सुख-साधन की प्राप्ति होती है।
दक्ष यज्ञ में जब माँ सती ने अपना शरीर जला कर भस्म कर दिया तो उनके जलते हुए शरीर से जो धुआँ निकला उससे धूमावती का जन्म हुआ। इसीलिए वह हमेशा उदास रहती है यानी धूमावती धुएँ के रूप में सती का स्वरूप माना गया है। एक बार सती भगवान शिव के साथ हिमालय में विचरण कर रही थी तभी उन्हें जोरों की भूख लगी उन्होने भगवान शिव से कहा मुझे भूख लगी है मेरे लिए भोजन का प्रबंध कीजिये तब भगवान शिव ने कहा अभी तो कोई प्रबंध नहीं हो सकता। ऐसा सुनकर सती ने कहा ठीक है मैं तुम्हें ही खा जाती हूँ और भगवान शिव को ही निगल गयी। भगवान शिव तो सम्पूर्ण जगत के परिपालक है फिर शिव ने उनसे अनुरोध किया कि मुझे बाहर निकालो तो उन्होंने उगल कर उन्हें बाहर निकाल दिया। भगवान शिव ने उन्हें शाप दिया कि अभी से तुम विधवा रूप में रहोगी। इन्हे लम्बे समय तक घर में स्थापित या विराजमान होने की कामना नहीं करनी चाहिए। क्योंकि यह दुःख क्लेश और दरिद्रता की देवी है। इनकी पूजा के समय ऐसी भावना करनी चाहिए की देवी प्रसन्न होकर मेरे समस्त दुःख-रोग-दरिद्रता-कष्ट-विघ्न को अपने सूप में समेट कर मेरे घर से विदा होइये और हमें धन-लक्ष्मी-सुख एवं शांति का आशीर्वाद दीजिये। निरंतर इनकी स्तुति करने वाला कभी धन विहीन नहीं होता व उसे दुःख छूते भी नहीं बड़ी से बड़ी शक्ति भी इनके सामने नहीं टिक पाती इनका तेज सर्वोच्च कहा जाता है। श्वेतरूप व धूम्र अर्थात धुंआ इनको प्रिय है पृथ्वी के आकाश में स्थित बादलों में इनका निवास होता है।
दस महाविद्या शक्तियां-Das Mahavidya