(Yamraj cursed by Mandavya Rishi)
शास्त्र कहते हैं कि हर किसी को अपने कर्मों का दुख या सुख भोगना ही पड़ता है। इससे बचा नहीं जा सकता। स्वयं मृत्यु के देवता यमराज भी इससे बच नहीं पाए थे और अपने एक फैसले के कारण उनको ऋषि का श्राप मिला और फिर वे धरती पर दासी पुत्र विदुर के रूप में जन्मे। एक बार कुछ चोरों ने राजकोष से चोरी की। चोरी का समाचार फैला। राज कर्मचारी चोरों की खोज में भागे। चोरों का पीछा किया। चोर घबरा गए। माल के साथ भागना मुश्किल था। मार्ग में मांडव्य ऋषि का आश्रम आया। चोर आश्रम में चले गए। चोरों ने चोरी का माल आश्रम में छिपा दिया और वहाँ से भाग गए। सैनिक पीछा करते हुए मांडव्य ऋषि के आश्रम में आ गए। छानबीन की। चोरी का माल बरामद कर दिया। मांडव्य ऋषि ध्यान में थे। राज कर्मचारियों की भाग-दौड़ की आवाज से उनका ध्यान भंग हुआ। उन्होंने मांडव्य ऋषि को ही चोर समझा। उन्हें पकड़ लिया और राजा के पास ले गये। राजा ने फांसी की सजा सुना दी।
विदुर की मृत्यु का सत्य
जब धृतराष्ट्र, गांधारी, कुंती व विदुर वानप्रस्थ आश्रम में रहते हुए कठोर तप कर रहे थे, तब एक दिन युधिष्ठिर सभी पांडवों के साथ उनसे मिलने पहुंचे। धृतराष्ट्र, गांधारी व कुंती के साथ जब युधिष्ठिर ने विदुर को नहीं देखा तो धृतराष्ट्र से उनके बारे में पूछा। धृतराष्ट्र ने बताया कि वे कठोर तप कर रहे हैं। तभी युधिष्ठिर को विदुर उसी ओर आते हुए दिखाई दिए लेकिन आश्रम में इतने सारे लोगों को देखकर विदुरजी पुनः लौट गए। युधिष्ठिर उनसे मिलने के लिए पीछे-पीछे दौड़े। तब वन में एक पेड़ के नीचे उन्हें विदुरजी खड़े हुए दिखाई दिए। उसी समय विदुरजी के शरीर से प्राण निकले और युधिष्ठिर में समा गए।
विदुर की भगवान श्रीकृष्ण से अंतिम इच्छा
महाभारत युद्ध चल रहा था। विदुर भगवान श्रीकृष्ण के पास गए और उनसे एक निवेदन किया। वह अपनी अंतिम इच्छा श्रीकृष्ण को बताना चाहते है। उन्होंने कहा-हे प्रभु, मैं धरती पर इतना प्रलयकारी युद्ध देखकर बहुत चिंचित हूँ। मेरी मृत्यु के बाद मैं अपने शरीर का एक भी अंश इस धरती पर नहीं छोड़ना चाहता। इसलिए मेरा आपसे यह निवेदन है कि मेरी मृत्यु होने पर ना मुझे जलाया जाए, ना दफनाया जाए, और ना ही जल में प्रवाहित किया जाए। मेरी मृत्यु के बाद मुझे आप कृपया सुदर्शन चक्र में परिवर्तित कर दें। यही मेरी अंतिम इच्छा है। श्रीकृष्ण ने उनकी अंतिम इच्छा स्वीकार की और उन्हें यह आश्वासन दिया कि उनकी मृत्यु के पश्चात वह उनकी इच्छा अवश्य पूरी करेंगे। युधिष्ठिर के लिए यह घटना कुछ अजीब थी। वे समझ नहीं पा रहे थे कि ये क्या हुआ, क्यूं हुआ, इसके पीछे क्या कारण था? अपनी दुविधा का हल खोजने के लिए उन्होंने श्रीकृष्ण को याद किया। भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हुए युधिष्ठिर को दुविधा में देखते हुए वे मुस्कुराए और बोले- हे युधिष्ठिर यह समय चिंता का नहीं है। विदुर धर्मराज के अवतार थे और तुम स्वयं धर्मराज हो। इसलिए प्राण त्याग कर वे तुममें समाहित हो गए। लेकिन अब मैं विदुर को दिया हुआ वरदान पूरा करने आया हूँ। यह कहकर श्रीकृष्ण ने विदुर के शव को सुदर्शन चक्र में परिवर्तित किया।