भगवान् श्रीकृष्ण बोले-धर्मनन्दन! सुनो तुम्हें इस समय वह प्रसङ्ग सुनाता हूं, जिसे राजा मान्धाता के पूछने पर महात्मा वशिष्ठ ने कहा था। फाल्गुन शुक्ल पक्ष को एकादशी का नाम आमलकी है। इसका पवित्र व्रत विष्णुलोक की प्राप्ति कराने वाला है। आमलकी एक वृक्ष है जो पापों का नाश करने वाला है। भगवान् विष्णुके थूकने पर उनके मुख से चन्द्रमा के समान कान्तिमान् एक विन्दु प्रकट हुआ। वह विन्दु पृथ्वी पर गिरा। उसी से आमलकी (आँवले) का वृक्ष उत्पन्न हुआ। यह सभी वृक्षों का आदिभूत कहलाता है। इसी समय समस्त प्रजा को सृष्टि करन ेके लिये भगवान्ने ब्रह्माजी को उत्पन्न किया। उन्हीं से इन प्रजाओं की सृष्टि हुई। देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, नाग तथा निर्मल अन्तःकरण वाले महर्षियों को ब्रह्माजी ने जन्म दिया। उनमें से देवता और ऋषि उस स्थानपर आये, जहाँ विष्णुप्रिया आमलकी का वृक्ष था। उसे देखकर देवताओ को बड़ा विस्मय हुआ। वह एक-दूसरे पर दृष्टिपात करते हुए उत्कण्ठापूर्वक उस वृक्ष की ओर देखने लगे और खड़े-खड़े सोचने लगे कि प्रक्ष (पाकर) आदि वृक्ष तो पूर्व कल्पकी ही भांति हैं, जो सबके सब हमारे परिचित है, किन्तु इस वृक्ष को हम नहीं जानते। उन्हें इस प्रकार चिन्ता करते देख आकाशवाणी हुई महर्षियो! यह सर्वश्रेष्ठ आमलकीका वृक्ष है, जो विष्णु को प्रिय है। इसके स्मरण मात्र से गौ दान का फल मिलता है। स्पर्श और फल भक्षण करने से पुण्य प्राप्त होता है। इसलिए सदा प्रयत्नपूर्वक आमलकीक सेवन करना चाहिए। यह सब पापों को हरने वाला वैष्णव वृक्ष बताया गया है। इसके मूल में विष्णु, उसके ऊपर ब्रह्मा, स्कन्ध में परमेश्वर भगवान् रुद्र, शास्त्राओं में मुनि, टहनियोंमें देवता, पत्तों में वसु, फूलों में मरुद्रण और फलों में समस्त प्रजापति वास करते हैं। आमलकी सर्वदेवमयी बतायी गयी है। अतः विष्णुभक्त पुरुषों के लिये यह परम पूज्य है।
ऋषि बोले- भगवन्! इस व्रत की विधि बतलाइये। यह कैसे पूर्ण होता है? इसके देवता, नमस्कार और मन्त्र कौन-से बताये गये हैं? उस समय स्त्रान और दान कैसे किया जाता है? पूजन की कौन-सी विधि है तथा उसके लिये मन्त्र क्या है? इन सब बातों का यथार्थ रूप से वर्णन कीजिये। भगवान् विष्णु ने कहा-इस व्रत को जो उत्तम विधि है उसको श्रवण करो! एकादशी को प्रातःकाल दन्तधावन करके यह सङ्कल्प करे कि हे पुण्डरीकाक्ष! हे अच्युत! मैं एकादशी को निराहार रहकर दूसरे दिन भोजन करूंगा। आप मुझे शरण में रखें। ऐसा नियम लेने के बाद पतित, चोर, पाखण्डी, दुराचारी, मर्यादा भंग करने वाले तथा गुरु पत्नी गामी, मनुष्यों से वार्तालाप न करे। अपने मनको वश में रखते हुए नदी में, पोखरे में, कुएं पर अथवा घर में ही स्नान करे। स्नान के पहले शरीर में मिट्टी लगाये।
मृत्तिका लगाने का मन्त्र अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे। मृत्तिके हर मे पापं जन्मकोट्यां समर्जितम् वसुन्धरे! तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते हैं तथा वामन अवतार के समय भगवान् विष्णुने भो तुम्हें अपने पैरों से नापा था। मृत्तिके! मैंने करोड़ों जन्मों में जो पाप किये है मेरे उन सब पापोंको हर लो।
जलकी अधिष्ठात्री देवी! मातः! तुम सम्पूर्ण भूतों के लिये जीवन हो। वही जीवन, जो स्वेदज और उद्धिज्ज जातिके जीवों का भी रक्षक है। तुम रसोंकी स्वामिनी हो। तुम्हें नमस्कार है। आज मैं सम्पूर्ण तीर्थों, कुण्डों, झरनों, नदियों और देवसम्बन्धी सरोवरोंमें स्नान-कर चुका। मेरा यह स्नान उक्त सभी स्त्रानोंका फल देनेवाला हो। विद्वान् पुरुष को चाहिये कि वह परशुरामजी को सोने की प्रतिमा बनवाये। प्रतिमा अपनी शक्ति और धन के अनुसार एक या आधे माशे सुवर्ण की होनी चाहिये। खान के पश्चात् घर आकर पूजा और हवन करे। इसके बाद सब प्रकार की सामग्री लेकर आँवले के वृक्षके पास जाय। वहां वृक्ष के चारों ओर की जमीन झाड़-बुहार, लीप-पोतकर शुद्ध करे। शुद्ध की हुई भूमि में मन्त्र-पाठपूर्वक जल से भरे हुए नवीन कलशकी स्थापना करे। कलश में पञ्चरत्र और दिव्य गन्ध आदि छोड़ दे। श्वेत चन्दन से उसको चर्चित करे। कण्ठमें फूल की माला पहनाये। सब प्रकार के धूप की सुगन्ध फैलाये। जलते हुए दीपकों की श्रेणी सजाकर रखे। तात्पर्य यह कि सब ओर से सुन्दर एवं मनोहर दृश्य उपस्थित करें। पूजा के लिये नवीन छाता, जूता और वस्त्र रखे। कलश के ऊपर एक पात्र रखकर उसे दिव्य लाजों (खीलों) से भर दे। फिर उसके ऊपर सुवर्णमय परशुरामजी की स्थापना करे।
'विशोकाय नमः' कहकर उनके चरणों की, 'विश्वरूपिणे नमः' से दोनों घुटनोंकी, 'उग्राय नमः' से जांघों की, 'दामोदराय नमः' से कटिभाग की, 'पद्मनाभाय नमः' से उदरकी, 'श्रीवत्सधारिणे नमः' से वक्षःस्थलकी, 'चक्रिणे नमः' से बायी बाँहकी, 'गदिने नमः' से दाहिनी बाँहकी, 'वैकुण्ठाय नमः' से कण्ठकी, 'यज्ञमुलाय नमः' से मुखकी, 'विशोक निधये नमः' से नासिकाकी, 'वासुदेवाय नमः' से नेत्रोंकी, 'वामनाय नमः' से लल्लाटकी, 'सर्वात्मने नमः' से सम्पूर्ण अङ्गों तथा मस्तककी पूजा करे। ये ही पूजाके मन्त्र हैं। तदनन्तर भक्तियुक्त चित्तसे शुद्ध फलके द्वारा देवाधिदेव परशुरामजीको अर्घ्य प्रदान करे।
नमस्ते देवदेवेश जामदग्न्य नमोऽस्तु ते। गृहाणार्घ्यमिमं दत्तमामलक्या युतं हरे॥ देवदेवेश्वर। जमदग्रिनन्दन! श्रीविष्णुस्वरूप परशुरामजी ! आपको नमस्कार है, नमस्कार है। आंवले के फलके साथ दिया हुआ मेरा यह अर्घ्य ग्रहण कीजिये।'
तदनन्तर भक्तियुक्त चित्तसे जागरण करे। नृत्य, संगीत, वाद्य, धार्मिक उपाख्यान तथा श्री विष्णु सम्बन्धिनी कथा-वार्ता आदिके द्वारा वह रात्रि व्यतीत करे। उसके बाद भगवान् विष्णुके नाम ले-लेकर आमलकी वृक्षकी परिक्रमा एक सौ आठ या अट्ठाईस बार करे। फिर सबेरा होनेपर श्रीहरिकी आरती करे। ब्राह्मणकी पूजा करके वहाँकी सब सामग्री उसे निवेदन कर दे। परशुरामजीका कलश, दो वस्त्र, जूता आदि सभी वस्तुएँ दान कर दे और यह भावना करे कि 'परशुरामजीके स्वरूपमें भगवान् विष्णु मुझपर प्रसन्न हों।' तत्पश्चात् आमलकी का स्पर्श करके उसकी प्रदक्षिणा करे और स्रान करनेके बाद विधिपूर्वक ब्राह्मणों को भोजन कराये। तदनन्तर कुटुम्बियोंके साथ बैठकर स्वयं भी भोजन करे। ऐसा करनेसे जो पुण्य होता है, वह सब बतलाता हूँ: सुनो। सम्पूर्ण तीर्थोक सेवनसे जो पुण्य प्राप्त होता है तथा सब प्रकार के दान देने से जो फल मिलता है, वह सब उपर्युक्त विधि के पालन से सुलभ होता है। समस्त यज्ञों की अपेक्षा भी अधिक फल मिलता है; इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। यह व्रत सब व्रतोंमें उत्तम है, जिसका मैंने तुमसे पूरा-पूरा वर्णन किया है।
पैसों की कमी अब कभी नहीं रहेगी-There will never be a shortage of money now
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