माँ चंद्रबदनी शक्तिपीठ-Maa Chandrabadni Shakti Peeth

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माँ चंद्रबदनी शक्तिपीठ
Maa Chandrabadni Shakti Peeth

माँ चंद्रबदनी मंदिर उत्तराखंड के सबसे पवित्र मंदिरों में से एक है, जिसकी एक विशिष्ट पौराणिक कथा और कई मान्यतायें जुडी हुई है। यह समुद्र तल से 2,277 मीटर की ऊँचाई पर देवी सती को समर्पित है। कहा जाता है कि जिस पहाड़ी पर यह मंदिर स्थापित है, उसे पहले चंद्रकुट पर्वत के नाम से जाना जाता था।  लेकिन देवी सती के बदन (धड) गिरने के बाद यहाँ चंद्रबदनी मंदिर की स्थापना की गयी, जिसके बाद इसे भी चंद्रबदनी पर्वत के नाम से जाना जाने लगा। स्कंद पुराण में चन्द्रकूट पर्वत के प्रसंग में चन्द्रवदनी माता भुवनेश्वरी की सुन्दर लीला का वर्णन आया है।  

माँ चंद्रबदनी मंदिर देवी शक्ति को समर्पित है, जो भारत में स्थापित 51 शक्तिपीठो में से एक है। चंद्रबदनी मंदिर में देवी सती या अन्य किसी देवता की मूर्ति नही है, बल्कि यहाँ एक श्रीयंत्र की पूजा की जाती है। स्वयं भगवान शिव के पुत्र स्कंद ने इस सिद्व पीठ की महिमां का वर्णन करते हुए देवताओं को बताया है। यह स्थान समस्त सिद्धियों का प्रदाता है। इस शक्ति स्थल के दर्शन से जन्म जन्मांतर के पापों से मुक्त हो जाता है।  

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राजा दक्ष ने विशाल यज्ञ किया, इस अवसर पर शिव को अपमानित करने के लिए उन्हें यज्ञ का हिस्सा बनने के लिए आमंत्रित नहीं किया गया था। देवी सती पिता के हाथों हुए शिव अपमान को सहन नही कर सकी और आग में कूद गई। क्रोधित शिव ने सती के जले हुए शरीर को उठाया और उनके निवास स्थान की ओर चल पड़े। इस पल में पृथ्वी हिंसक रूप से हिल गई और शिव को ऐसा करने से रोकने के लिए देवताओं की एक पूरी संख्या एक साथ आई। शिव को समझाने में असमर्थ, विष्णु जी ने आखिरकार अपना चक्र भेजा और देवी सती के जले हुए शरीर को नष्ट कर दिया था। जिससे देवी सती के शरीर के टुकड़े अलग अलग स्थानों पर जा कर गिरे थे और बाद में उन गिरे हुए स्थानों पर शक्ति पीठो की स्थापना हुई। ठीक उसी प्रकार आज जिस स्थान पर चंद्रबदनी मंदिर स्थापित है उस स्थान पर देवी सती शरीर का धड़ गिरा था।

इस स्थान के द्वार पर साक्षात् भगवान् भैरव विराजमान है। कहा जाता है कि दक्ष प्रजापति के यज्ञ कुण्ड में माता सती के देह त्यागे जाने के बाद भगवान शंकर उनकी चन्द्रमुखी छवि का स्मरण कर व्याकुल होकर विलाप करने लगे शोकाकुल भगवान शिव के शोक से समस्त त्रिभुवन शोकाकुल हो उठा कैलाश पर्वत पर शिव के शोकाकुल हो उठने से ब्रह्मा आदि देवता भी सन्तप्त हो उठे यक्ष, मुनि, सिद्व, गन्धर्व, किन्नर आदि भी शोक की ज्वालाओं से दहकने लगे ब्रह्मा सहित देवगण व सिद्व मुनी गन्धर्व भगवान शिव के व्याकुल होने पर सृष्टि को ब्याकुलता से रोकने के लिए भगवती भुवनेश्वरी चन्द्रवदनी माता की स्तुति करने लगे।

माता राजराजेश्वरी सिद्धपीठ उत्तराखंड Mata Rajrajeshwari Sidhpeeth Uttrakhand 

जिस देवी ने आदि और अंत से रहित देव को मोह में डाल दिया, उसके लिए सामान्य पुरूष क्या है, नारायणी देवी को नमस्कार है। इस प्रकार भांति भांति प्रकार से माँ चन्द्रबदनी का स्मरण कर देवगण कहने लगे। जिसने सम्पूर्ण जगत की सृष्टि की और जो त्रिभुवन में ब्याप्त है, जिसने संसारी सामान्यजन की तरह ममता रहित परमानन्द स्वरुप महादेव को मुग्ध कर दिया, जिस महादेवी ने योगेश्वर विष्णु को मोह में डाल दिया, जिसने पूर्व काल में तीनो लोको के रचियता ब्रह्म देव को पुत्री के प्रति आसक्त हृदय का बना दिया, जिस देवी ने चन्द्रमां को गुरुपत्नी के प्रति मोहित कर उसके पीछे लगा दिया, जिसके द्वारा मोहित सम्पूर्ण जगत सारा कुकर्म या सुकर्म करता है, जिसके द्वारा सम्मोहित जन्तु मृत्यु को प्राप्त होता हुआ भी यह मेरा है। ऐसा बोलता है। व अनित्य पुत्र, स्त्री, धन आदि को नित्य मानता है, तथा जिसके द्वारा मोहित प्राणी, मरे हुए, मरते हुए, और मरने के लिए उद्यत् प्राणियों को देखकर जीने की अभिलाषा रखता है, उस देवी को बारम्बार नमस्कार है। प्रसन्न देवी ने सभी को अपने अलौकिक स्वरुप के दर्शन कराये, सिन्दूर के लेप से लाल अगों वाली, तीन नेत्रों वाली, एक हाथ में पानपात्र तथा दूसरे में कलम धारण करने वाली चमकती रत्नों से शोभित चन्द्रमुखी, विश्व को आनन्द देने में सूर्य के समान दृश्य वाली उस देवी को देखकर भगवान शिव मोह से रहित होकर क्षण भर में ही स्वस्थ्य हो गये। देवगण, ऋषिगण व सिद्वगणों आदि हर्षित होकर देवी की परिक्रमां करके बारम्बार मातेश्वरी को प्रणाम करने लगे तथा प्रसन्नता पूर्वक अपने अपने लोकों को चले गये। तभी से यह पीठ श्रेष्ठ शक्ति पीठ के रुप में पूज्यनीय हो गया और महादेव यही रहने लगे। इसी स्थान पर महादेव महादेवी की कृपा से माता सती के वियोग की पीड़ा से मुक्त हुए थे। 

माँ चन्द्रबदनी के इस पावन स्थल पर देवीसूक्त के द्वारा मातेश्वरी की स्तुति करता है, वह जीवन का आनन्द प्राप्त कर मोक्ष का भागी बनता है। इस मंदिर में देवी माँ की मूर्ति के दर्शन कुमाऊं के देवीधूरा स्थित वाराही देवी की भातिं ही वर्जित है। कहा जाता है, जो दर्शन की चेष्टा करता है, वह अधां हो जाता है, विशेष अवसर पर पुजारी द्वारा आखों में पट्टी बाध कर दूध से देवी मूर्ति को स्नान कराने की प्राचीन परम्परा आज भी कायम है। 

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