माता राजराजेश्वरी सिद्धपीठ उत्तराखंड Mata Rajrajeshwari Sidhpeeth Uttrakhand

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माता राजराजेश्वरी सिद्धपीठ उत्तराखंड
(Mata Rajrajeshwari Sidhpeeth Uttrakhand)

माता राजराजेश्वरी मंदिर की प्रमुख विशेषता प्राचीन 52 गढ़ों में प्रमुख गढ़ देवलगढ़ की ऊंची पहाड़ी पर स्थित श्री राजराजेश्वरी सिद्धपीठ की पहचान उत्तराखंड के जागृत सिद्धपीठ के रूप में है। एक से पांच वर्ष तक राजराजेश्वरी बाला सुंदरी या बालात्रिपुर सुंदरी हैं। उसके बाद 15 साल तक नन्दादेवी पर विशेष राजराजेश्वरी लेकिन जब 16 साल की होती हैं तो उसे षोढ़षी या संपूर्ण राजराजेश्वरी कहा गया है। 

देवी षोडशी दस महाविद्याओं में एक महाविद्या है। देवी षोडशी को त्रिपुर सुंदरी (तीनो लोको में सुंदर) के रूप से भी जाना जाता है। इनको ललिता एवं राज राजेश्वरी नाम से भी जाना जाता है। माता राजराजेश्वरी की आराधना से शारीरिक, मानसिक शक्ति का विकास होता है। मनोकामना पूर्ण होती है तथा घर मे सुख शान्ति तथा सम्रद्धि आती है। श्रीनगर गढ़वाल धारी देवी मार्ग से 18 किमी दूर देवलगढ़ में एक सिद्धपीठ माता राजराजेश्वरी का स्थल है। जो गढ़वाल राजवंश और उनसे संबंधित लोगों की कुलदेवी है। 

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देवलगढ़ तक निजी या सवारी वाहन से पहुंचा जा सकता है। इसके बाद सड़क से तकरीबन 250 मीटर की चढ़ाई चढ़ने पर मात राजराजेश्वरी मंदिर मौजूद है। माता राजराजेश्वरी मंदिर से पूर्व गौरा देवी मंदिर के दर्शन भी भक्तों को होते हैं। यहां अन्य कई छोटे-बड़े मंदिर देखने को मिलते हैं। 

पोस्ट ऑफिस के जरिए हवन-यज्ञ की भभूत (राख) विदेशों में भेजी जाती है। कहा कि जब विदेशों से लोग गांव आते हैं तो मंदिर के दर्शनों के लिए जरूर पहुंचते हैं। मंदिर में पहुंचने के बाद लोग भभूत अपने साथ ले जाते हैं। गढ़वाल नरेश रहे अजयपाल ने चांदपुर गढ़ी से राजधानी परिवर्तन कर देवलगढ़ को राजधानी बनाया था। तब चांदपुर से श्रीयंत्र लाकर तीन मंजिला भवन बनाकर उसमें श्रीयंत्र, श्री महिषमर्दिनी यंत्र एवं कामेश्वरी यंत्र की राजराजेश्वरी मंदिर की सन 1512 में स्थापना की थी।

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सन 1948 तक नवरात्रि की विशेष पूजा और अनुष्ठान की सारी व्यवस्थाएं नौटियाल राजगुरु करते थे। कोठी के अंदर की पूजा में पोखरी के बहुगुणा, मासों के डंगवाल ज्योतिषाचार्यों व श्रीविद्या उपासकों का बड़ा योगदान रहता था। 1949 में टिहरी के भारत सरकार में विलीनीकरण के बाद प्रत्येक वर्ष होने वाली महापूजा की परंपरा समाप्त होने लगी। जिसके कारण कई पंडित और यजमान परिवार सिद्धपीठ से दूर हो गए। तब उनियाल पुजारी परिवार ने विशेष पूजा परंपरा को यथावत बनाए रखा है। 

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