भगवान शिव के अंश ऋषि दुर्वासा महर्षि अत्रि और माता अनुसूया के पुत्र थे। महर्षि अत्रि ब्रह्माजी के मानस पुत्र थे। ऋषि दुर्वासा सतयुग, त्रेता एवं द्वापर तीनों युगों के एक प्रसिद्ध सिद्ध योगी और महान् ऋषि थे। वे अपने क्रोध के लिए जाने जाते थे। छोटी सी भूल हो जाने पर ही वे शाप दे देते थे।
माता अनुसूया को पुत्र रूप में मिले भगवान शिव (Mata Anusuya ko putra roop mein mile Bhagwan Shiv)
तीनों देव सती अनसूया से प्रसन्न हो बोले, देवी ! वरदान मांगो। त्रिदेव की बात सुन अनसूया बोली प्रभु ! आप तीनों मेरी कोख से जन्म लें ये वरदान मुझे चाहिए अन्यथा नहीं। तभी से वह माता सती अनुसूया के नाम से प्रख्यात हुई तथा कालान्तर में भगवान दतात्रेय रूप में भगवान विष्णु, चन्द्रमा के रूप में ब्रह्मा का तथा दुर्वासा के रूप में भगवान शिव का जन्म माता अनुसूया के गर्भ से हुआ। ऋषि दुर्वासा जैसे बड़े हुए माता-पिता से आदेश लेकर वे अन्न जल का त्याग कर कठोर तपस्या करने लगे। विशेषतः यम-नियम, आसन, प्राणायाम, ध्यान-धारणा आदि अष्टांग योग का अवलम्बन कर वे ऐसी सिद्ध अवस्था में पहुँचेे कि उनको बहुत सी योग-सिद्धियाँ प्राप्त हो गई। अब वे सिद्ध योगी के रूप में विख्यात हो गए। इसी प्रकार उन्होंने यमुना किनारे एक आश्रम का निर्माण किया और यही पर रहकर आवश्यकता के अनुसार बीच-बीच में भ्रमण भी किया।
ऋषि दुर्वासा आश्रम के निकट ही यमुना के दूसरे किनारे पर महाराज अम्बरीष का एक बहुत ही सुन्दर राजभवन था। एक बार राजा निर्जला एकादशी एवं जागरण के उपरांत द्वादशी व्रत पालन में थे। समस्त कार्य सम्पन्न कर संत-विप्र आदि भोज के पश्चात् ऋषि दुर्वासा आ गए। यह देखकर राजा ने प्रसाद ग्रहण करने का निवेदन किया। ऋषि दुर्वासा यमुना स्नान कर आने की बात कहकर चले गए।
ब्राह्मणों के परामर्श पर श्री चरणामृत ग्रहण कर राजा का पारण करना ही था कि ऋषि उपस्थित हो गए तथा क्रोधित होकर कहने लगे कि तुमने पहले पारण कर मेरा अपमान किया है। भक्त अम्बरीश को जलाने के लिए महर्षि ने अपनी जटा निचोड़ कृत्या राक्षसी उत्पन्न की परन्तु प्रभु भक्त अम्बरीश अडिग खडे रहे। भगवान ने भक्त रक्षार्थ चक्र सुदर्शन प्रकट किया और राक्षसी भस्म हुई। दुर्वासा जी चैदह लोकों में रक्षार्थ दौड़ते फिरे। शिव की चरण में पहुंचे। शिव ने विष्णु के पास भेजा विष्णु जी ने कहा आपने भक्त का अपराध किया है। अतः यदि आप अपना कल्याण चाहते है तो भक्त अम्बरीश के निकट ही क्षमा प्रार्थना करें। ऋषि दुर्वासा अपने प्राण बचाने के लिए इधर-उधर भाग रहे थे तब से महाराज अम्बरीश ने भोजन नही किया था। तब उन्होंने ऋषि दुर्वासा के चरण पकड़ लिए और बडे़ प्रेम से भोजन कराया। ऋषि दुर्वासा भोजन करके तृप्त हुए और आदर पूर्वक राजा से भोजन करने का आग्रह किया। दुर्वासा ने संतुष्ट होकर महाराज अम्बरीश के गुणों की प्रशंसा की और आश्रम लौट आए। महाराज अम्बरीश के संसर्ग से महर्षि दुर्वासा का चरित्र बदल गया।
एक बार अपने साठ हजार शिष्यों सहित ऋषि दुर्वासा श्री रामचंद्र जी के दर्शन करने के लिए अयोध्या को जा रहे थे तब रास्ते में ऋषि दुर्वासा ने सोचा कि मनुष्य का रूप धारण कर यह तो भगवान विष्णु है यह तो मैं जानता हूँ किन्तु संसारी जनों को आज मैं उनका पौरुष दिखलाऊँगा। इस विचार के साथ ऋषि दुर्वासा आए और नगरी में प्रवेश कर सबको साथ लिए भगवान के भवन के आठ चैकों को लाँघकर पहले सीता जी के भवन में पहुँचे। तब शिष्यों सहित दुर्वासा को सीता जी के द्वार पर उपस्थित देख पहरेदारों ने दौड़कर श्री रामचंद्र जी को इसकी सूचना दी। यह सुनते ही भगवान राम मुनि दुर्वासा के पास आ पहुँचे और प्रणाम कर सबको बड़े आदर सहित भवन के अन्दर प्रवेश की प्रार्थना की। सभी को बैठने के लिए सुंदर आसन दिया आसन पर बैठते ही दुर्वासा ने मधुर वचनों में श्री रामचंद्र जी से कहा आज एक हजार वर्ष का मेरा उपवास व्रत पूरा हुआ है। इस कारण मेरे शिष्यों सहित मुझे भोजन कराइये और इसके लिए आपको केवल एक मुहूर्त का समय देता हूँ। ऋषि दुर्वासा ने कहा ज्ञात रहे कि मेरा यह भोजन जल, धेनु और अग्नि की सहायता से प्रस्तुत न किया जायेगा। केवल एक मुहूर्त में ही मेरी इच्छानुसार वह भोजन जिसमें विविध प्रकार के पकवान प्रस्तुत होंगे इसके अतिरिक्त यदि तुम अपने गृहस्थ्य-धर्म की रक्षा चाहो तो शिव पूजन निमित्त मुझे ऐसे पुष्प मँगवा दो कि जैसे पुष्प यहाँ अब तक किसी ने देखे न हो।
ऋषि दुर्वासा से दुर्योधन ने माँगा वरदान (Rishi Durvasa se Duryodhan ne manga verdan)
ऋषि दुर्वासा ने समस्त जीवन में किसी न किसी की परीक्षा लेते रहे एक समय ऋषि दुर्वासा अपने दस हजार शिष्यों के साथ दुर्योधन के यहाँ पहुँचे। दुर्योधन ने उन्हें प्रसन्न करके वरदान माँगा कि वे अपने शिष्यों सहित वनवासी युधिष्ठिर का आतिथि ग्रहण करें। दुर्योधन ने उनसे यह कामना प्रकट की कि वे उनके पास तब जायें जब द्रौपदी भोजन कर चुकी हो। दुर्योधन को पता था कि द्रौपदी के भोजन कर लेने के उपरांत बटलोई में कुछ भी शेष नही होगा और दुर्वासा उसे शाप दे देंगे। दुर्वासा ऐसे ही अवसर पर शिष्यों सहित पांडवों के पास पहुंचे तथा उन्हें रसोई बनाने का आदेश देकर स्नान करने चले गये। धर्म संकट में पड़कर द्रौपदी ने कृष्ण का स्मरण किया। कृष्ण ने उसकी बटलोई में लगे हुए साग के एक पत्ते को खा लिया तथा कहा इस साग से संपूर्ण विश्व के आत्मा, यज्ञभोक्ता सर्वेश्वर भगवान श्रीहरि तृप्त तथा संतुष्ट हो जाएँ। उनके ऐसा करते ही दुर्वासा को अपने शिष्यों सहित तृप्ति के डकार आने लगे। वे लोग यह सोचकर लगे कि पांडवगण अपनी बनाई रसोई को व्यर्थ जाता देख रुष्ट होंगे दूर भाग गये।
एक बार ऋषि दुर्वासा को भगवान श्रीकृष्ण ने अतिथि रूप में आमन्त्रित किया। ऋषि दुर्वासा अनेक प्रकार से भगवान श्रीकृष्ण के स्वभाव की परीक्षा ली। ऋषि दुर्वासा कभी शैया, आभूषित कुमारी इत्यादि समस्त वस्तुओं को भस्म कर देते और कभी दस हजार लोगों के बराबर खाते, कभी कुछ भी न खाते। एक दिन खीर जूठी करके उन्होंने कृष्ण को आदेश दिया कि वे अपने और रुक्मिणी के अंगों पर लेप कर दें। फिर रुक्मिणी को रथ में जोतकर चाबुक मारते हुए बाहर निकले। थोड़ी दूर चलकर रुक्मिणी लड़खड़ाकर गिर गयी। ऋषि दुर्वासा क्रोध में दक्षिण दिशा की ओर चल दिये। कृष्ण ने उनके पीछे-पीछे जाकर उन्हें रोकने का प्रयास किया तो दुर्वासा प्रसन्न हो गये तथा कृष्ण को क्रोधविहीन जानकर उन्होंने कहा सृष्टि का जब तक और जितना अनुराग अन्न में रहेगा उतना ही तुममें भी रहेगा।
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