भगवान शिव के अंश ऋषि दुर्वासा- Bhagwan Shiv Ke Ansh Rishi Durvasa

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भगवान शिव के अंश ऋषि दुर्वासा
(Bhagwan Shiv Ke Ansh Rishi Durvasa)

भगवान शिव के अंश ऋषि दुर्वासा महर्षि अत्रि और माता अनुसूया के पुत्र थे। महर्षि अत्रि ब्रह्माजी के मानस पुत्र थे। ऋषि दुर्वासा सतयुग, त्रेता एवं द्वापर तीनों युगों के एक प्रसिद्ध सिद्ध योगी और महान् ऋषि थे। वे अपने क्रोध के लिए जाने जाते थे। छोटी सी भूल हो जाने पर ही वे शाप दे देते थे। 

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माता अनुसूया को पुत्र रूप में मिले भगवान शिव (Mata Anusuya ko putra roop mein mile Bhagwan Shiv)

तीनों देवियों की इच्छानुसार तीनों देवों ने साधु वेश में महर्षि अत्रि के आश्रम पर पहुँचे उस समय माता अनुसूया आश्रम पर अकेली थी। साधु के वेश में तीन अत्तिथियों को द्वार पर देख कर पतिव्रता अनुसूया ने भोजन ग्रहण करने का आग्रह किया। तीनों साधुओं ने कहा कि हम आपका भोजन अवश्य ग्रहण करेंगे। परंतु एक शर्त पर कि अगर आप हमे निवस्त्र होकर भोजन कराओगी। पतिव्रता अनुसूया ने साधुओं के शाप के भय से तथा अतिथि सेवा से वंचित रहने के पाप के भय से उन्होंने मन ही मन महर्षि अत्रि का स्मरण किया। दिव्य शक्ति से उन्होंने जाना कि यह तो त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश है। मुस्कुराते हुए माता अनुसूया बोली जैसी आपकी इच्छा। पतिव्रता अनुसूया ने परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना की कि हे परमेश्वर ! इन तीनों को छः-छः महीने के बच्चे की आयु के शिशु बनाओ। जिससे मेरा पतिव्रत धर्म भी खंडित न हो तथा साधुओं को आहार भी प्राप्त हो व अतिथि सेवा न करने का पाप भी न लगे। परमेश्वर की कृपा से तीनों देवता छः-छः महीने के बच्चे बन गए तथा पतिव्रता अनुसूया ने तीनों को निःवस्त्र होकर दूध पिलाया तथा पालने में लेटा दिया। माता अनसूया ने त्रिदेवों को उनका रूप प्रदान किया। 

तीनों देव सती अनसूया से प्रसन्न हो बोले, देवी ! वरदान मांगो। त्रिदेव की बात सुन अनसूया बोली प्रभु ! आप तीनों मेरी कोख से जन्म लें ये वरदान मुझे चाहिए अन्यथा नहीं। तभी से वह माता सती अनुसूया के नाम से प्रख्यात हुई तथा कालान्तर में भगवान दतात्रेय रूप में भगवान विष्णु, चन्द्रमा के रूप में ब्रह्मा का तथा दुर्वासा के रूप में भगवान शिव का जन्म माता अनुसूया के गर्भ से हुआ। ऋषि दुर्वासा जैसे बड़े हुए माता-पिता से आदेश लेकर वे अन्न जल का त्याग कर कठोर तपस्या करने लगे। विशेषतः यम-नियम, आसन, प्राणायाम, ध्यान-धारणा आदि अष्टांग योग का अवलम्बन कर वे ऐसी सिद्ध अवस्था में पहुँचेे कि उनको बहुत सी योग-सिद्धियाँ प्राप्त हो गई। अब वे सिद्ध योगी के रूप में विख्यात हो गए। इसी प्रकार उन्होंने यमुना किनारे एक आश्रम का निर्माण किया और यही पर रहकर आवश्यकता के अनुसार बीच-बीच में भ्रमण भी किया। 

राजा अम्बरीश की भक्ति ने ऋषि दुर्वासा के क्रोध चरित्र को बदला (Raja Ambrish ki bhakti ne Rishi Durvasa ke krodh charitra ko badla)

ऋषि दुर्वासा आश्रम के निकट ही यमुना के दूसरे किनारे पर महाराज अम्बरीष का एक बहुत ही सुन्दर राजभवन था। एक बार राजा निर्जला एकादशी एवं जागरण के उपरांत द्वादशी व्रत पालन में थे। समस्त कार्य सम्पन्न कर संत-विप्र आदि भोज के पश्चात् ऋषि दुर्वासा आ गए। यह देखकर राजा ने प्रसाद ग्रहण करने का निवेदन किया। ऋषि दुर्वासा यमुना स्नान कर आने की बात कहकर चले गए।

सुदर्शन चक्र ने ऋषि दुर्वासा को भागने पर मजबूर किया (Sudarshan Chakra ne Rishi Durvasa bhagne par majboor kiya)

ब्राह्मणों के परामर्श पर श्री चरणामृत ग्रहण कर राजा का पारण करना ही था कि ऋषि उपस्थित हो गए तथा क्रोधित होकर कहने लगे कि तुमने पहले पारण कर मेरा अपमान किया है। भक्त अम्बरीश को जलाने के लिए महर्षि ने अपनी जटा निचोड़ कृत्या राक्षसी उत्पन्न की परन्तु प्रभु भक्त अम्बरीश अडिग खडे रहे। भगवान ने भक्त रक्षार्थ चक्र सुदर्शन प्रकट किया और राक्षसी भस्म हुई। दुर्वासा जी चैदह लोकों में रक्षार्थ दौड़ते फिरे। शिव की चरण में पहुंचे। शिव ने विष्णु के पास भेजा विष्णु जी ने कहा आपने भक्त का अपराध किया है। अतः यदि आप अपना कल्याण चाहते है तो भक्त अम्बरीश के निकट ही क्षमा प्रार्थना करें। ऋषि दुर्वासा अपने प्राण बचाने के लिए इधर-उधर भाग रहे थे तब से महाराज अम्बरीश ने भोजन नही किया था। तब उन्होंने ऋषि दुर्वासा के चरण पकड़ लिए और बडे़ प्रेम से भोजन कराया। ऋषि दुर्वासा भोजन करके तृप्त हुए और आदर पूर्वक राजा से भोजन करने का आग्रह किया। दुर्वासा ने संतुष्ट होकर महाराज अम्बरीश के गुणों की प्रशंसा की और आश्रम लौट आए। महाराज अम्बरीश के संसर्ग से महर्षि दुर्वासा का चरित्र बदल गया। 

साठ हजार शिष्यों सहित ऋषि दुर्वासा चले अयोध्या (60,000 Hajjar Shishyon sahit Rishi Survasa chale Ayodhya)

एक बार अपने साठ हजार शिष्यों सहित ऋषि दुर्वासा श्री रामचंद्र जी के दर्शन करने के लिए  अयोध्या को जा रहे थे तब रास्ते में ऋषि दुर्वासा ने सोचा कि मनुष्य का रूप धारण कर यह तो भगवान विष्णु है यह तो मैं जानता हूँ किन्तु संसारी जनों को आज मैं उनका पौरुष दिखलाऊँगा। इस विचार के साथ ऋषि दुर्वासा आए और नगरी में प्रवेश कर सबको साथ लिए भगवान के भवन के आठ चैकों को लाँघकर पहले सीता जी के भवन में पहुँचे। तब शिष्यों सहित दुर्वासा को सीता जी के द्वार पर उपस्थित देख पहरेदारों ने दौड़कर श्री रामचंद्र जी को इसकी सूचना दी। यह सुनते ही भगवान राम मुनि दुर्वासा के पास आ पहुँचे और प्रणाम कर सबको बड़े आदर सहित भवन के अन्दर प्रवेश की प्रार्थना की। सभी को बैठने के लिए सुंदर आसन दिया आसन पर बैठते ही दुर्वासा ने मधुर वचनों में श्री रामचंद्र जी से कहा आज एक हजार वर्ष का मेरा उपवास व्रत पूरा हुआ है। इस कारण मेरे शिष्यों सहित मुझे भोजन कराइये और इसके लिए आपको केवल एक मुहूर्त का समय देता हूँ। ऋषि दुर्वासा ने कहा ज्ञात रहे कि मेरा यह भोजन जल, धेनु और अग्नि की सहायता से प्रस्तुत न किया जायेगा। केवल एक मुहूर्त में ही मेरी इच्छानुसार वह भोजन जिसमें विविध प्रकार के पकवान प्रस्तुत होंगे इसके अतिरिक्त यदि तुम अपने गृहस्थ्य-धर्म की रक्षा चाहो तो शिव पूजन निमित्त मुझे ऐसे पुष्प मँगवा दो कि जैसे पुष्प यहाँ अब तक किसी ने देखे न हो। 

ऋषि दुर्वासा की बात को सुनकर श्री रामचंद्र जी ने मुस्कराते हुए नम्रता से कहा मुझे आपकी यह सब आज्ञा स्वीकार है। राम चिन्तित हो गये। लक्ष्मण आदि भ्राता, जानकी तथा सब के सब व्याकुल हो राम की ओर निर्निमेष दृष्टि से देखने लगे कि मुनि ने तो इस प्रकार की सब अद्भुत वस्तुएँ माँगी हैं। इसके लिए देखें कि अब भगवान क्या करते हैं? क्योंकि बिना अग्नि, जल और बिना गौ के उनके लिए किस प्रकार से भोजन प्रस्तुत करते है तब श्री रामचंद्र जी ने लक्ष्मण जी से एक पत्र लिखवाया और उस पत्र को अपने बाण में बाँध कर धनुष पर चढ़ाया और छोड़ दिया। बाण वायु वेग से उड़कर अमरावती में इन्द्र की सुधर्मा नामक सभा में जाकर उनके सामने गिरा। उस बाण को देखकर इन्द्र आश्चर्य चकित हो गये कि यह किसका बाण है? फिर उठाकर देखा इस पर प्रभु श्रीराम जी का नाम अंकित था। फिर उसमें बँधे पत्र को खोलकर पढ़ा। पत्र खुलते ही वह बाण फिर वहाँ से उड़कर राम के तरकश में आया। इन्द्र देव ने सभा में बैठे सभी देवताओं को उस पत्र लिखि बातों से अवगत कराया। इसलिए तुम शीघ्र ही कल्पवृक्ष और पारिजात जो क्षीरसागर से निकले है क्षणमात्र में मेरे पास भेज दो। तत्क्षण इन्द्र देव कल्पवृक्ष और पारिजात को साथ लेकर देवताओं सहित विमान में बैठकर अयोध्या में पहुँचे।

ऋषि दुर्वासा से दुर्योधन ने माँगा वरदान (Rishi Durvasa se Duryodhan ne manga verdan) 

ऋषि दुर्वासा ने समस्त जीवन में किसी न किसी की परीक्षा लेते रहे एक समय ऋषि दुर्वासा अपने दस हजार शिष्यों के साथ दुर्योधन के यहाँ पहुँचे। दुर्योधन ने उन्हें प्रसन्न करके वरदान माँगा कि वे अपने शिष्यों सहित वनवासी युधिष्ठिर का आतिथि ग्रहण करें। दुर्योधन ने उनसे यह कामना प्रकट की कि वे उनके पास तब जायें जब द्रौपदी भोजन कर चुकी हो। दुर्योधन को पता था कि द्रौपदी के भोजन कर लेने के उपरांत बटलोई में कुछ भी शेष नही होगा और दुर्वासा उसे शाप दे देंगे। दुर्वासा ऐसे ही अवसर पर शिष्यों सहित पांडवों के पास पहुंचे तथा उन्हें रसोई बनाने का आदेश देकर स्नान करने चले गये। धर्म संकट में पड़कर द्रौपदी ने कृष्ण का स्मरण किया। कृष्ण ने उसकी बटलोई में लगे हुए साग के एक पत्ते को खा लिया तथा कहा इस साग से संपूर्ण विश्व के आत्मा, यज्ञभोक्ता सर्वेश्वर भगवान श्रीहरि तृप्त तथा संतुष्ट हो जाएँ। उनके ऐसा करते ही दुर्वासा को अपने शिष्यों सहित तृप्ति के डकार आने लगे। वे लोग यह सोचकर लगे कि पांडवगण अपनी बनाई रसोई को व्यर्थ जाता देख रुष्ट होंगे दूर भाग गये।

ऋषि दुर्वासा द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की परीक्षा (Rishi Durvasa dwara Bhagwan Srikrishan ki pariksha)

एक बार ऋषि दुर्वासा को भगवान श्रीकृष्ण ने अतिथि रूप में आमन्त्रित किया। ऋषि दुर्वासा अनेक प्रकार से भगवान श्रीकृष्ण के स्वभाव की परीक्षा ली। ऋषि दुर्वासा कभी शैया, आभूषित कुमारी इत्यादि समस्त वस्तुओं को भस्म कर देते और कभी दस हजार लोगों के बराबर खाते, कभी कुछ भी न खाते। एक दिन खीर जूठी करके उन्होंने कृष्ण को आदेश दिया कि वे अपने और रुक्मिणी के अंगों पर लेप कर दें। फिर रुक्मिणी को रथ में जोतकर चाबुक मारते हुए बाहर निकले। थोड़ी दूर चलकर रुक्मिणी लड़खड़ाकर गिर गयी। ऋषि दुर्वासा क्रोध में दक्षिण दिशा की ओर चल दिये। कृष्ण ने उनके पीछे-पीछे जाकर उन्हें रोकने का प्रयास किया तो दुर्वासा प्रसन्न हो गये तथा कृष्ण को क्रोधविहीन जानकर उन्होंने कहा सृष्टि का जब तक और जितना अनुराग अन्न में रहेगा उतना ही तुममें भी रहेगा। 

भगवान शिव के अवतार (Bhagwan Shiv Ke Avatars)

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