पुराणों के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने इस एकदशी से जुड़ी एक कथा युधिष्ठर को सुनाई। युधिष्ठिर के अनुरोध पर श्रीकृष्ण जी कहने लगे कि हे राजन् इस एकादशी का नाम जया एकादशी है इसका व्रत करने से मनुष्य ब्रहम हत्यादि पापों से मुक्त होकर मोक्ष की प्राप्ति करता है। श्री कृष्ण जी कहते है मैं तुम्हें पदमपुराण में वर्णित इसकी कथा सुनाता हूँ। देवराज इंद्र स्वर्ग में राज करते थे और अन्य सब देवगण सुखपूर्वक स्वर्ग में रहते थे।
इन्द्र इनके प्रेम को समझ गया और इसमें अपना अपमान समझ कर उसको श्राप दे दिया। इन्द्र ने कहा हे मूर्खों! तुमने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया है इसलिए तुम सजा के पात्र हो इसलिए तुम दोनों स्त्री-पुरुष के रूप में मृत्यु लोक में जाकर पिशाच रूप धारण करो और अपने कर्म का फल भोगो। इन्द्र का ऐसा शाप सुनकर वे अत्यन्त दुःखी हुए और हिमालय पर्वत पर दुःखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करने लगे। उन्हें गंध, रस, तथा स्पर्श आदि का कुछ भी ज्ञान नही था वहाँ उनको वहां महान दुःख मिल रहे थे इन्हें एक क्षण के लिए भी निद्रा नही आती थी। इस जगह अत्यन्त सर्दी थी इससे उनके रोंगटे खड़े रहते और सर्दी के कारण दाँत बजते रहते।
एक दिन पिशाच ने अपनी स्त्री से कहा कि पिछले जन्म में हमने ऐसे कौन से पाप किए थे जिससे हमको यह दुखदायी पिचाश योनि प्राप्त हुई। इस पिशाच योनि से तो नर्क के दुख सहना ही उत्तम है अतः हमें अब किसी प्रकार का पाप नहीं करना चाहिए इस प्रकार के विचार करते अपने दिन व्यतीत करते रहे। दैव्योग से तभी माघ मास में शुक्ल पक्ष की जया एकादशी आई उस दिन उन्होंने कुछ भी भोजन नही किया और न कोई पाप कर्म किया। केवल फल-फूल खाकर ही दिन व्यतीत किया। सायं काल के समय महान दुःख से पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ गए। उस समय सूर्य भगवान अस्त हो रहे थे। उस समय रात को अत्यन्त सर्दी थी इस कारण वे दोनों अत्यन्त दुःखी होकर मृतक के समान आपस में चिपके हुए पड़े रहे उस रात्रि का उनको निद्रा भी नही आई।
हे राजन्! जया एकादशी के उपवास और रात्रि के जागरण से दूसरे दिन प्रभात होेते ही उनकी पिशाच योनि छूट गई। अत्यन्त सुन्दर गंधर्व और अप्सरा की देह धारण कर सुन्दर वस्त्र आभूषणों से अलंकृत होकर उन्होंने स्वर्गलोक का प्रस्थान किया। उस समय आकाश में देवता उनकी स्तुति करते हुए पुष्पवर्षा करने लगे। स्र्वगलोक में जाकर इन दोनों ने देवराज इन्द्र को प्रणाम किया यह देखकर देवराज इन्द्र आश्चर्य चकित हुये और इसका कारण पूछने लगे। माल्यवान बोले कि हे इन्द्र! भगवान विष्णु की कृपा और जया एकादशी के व्रत के प्रभाव से हमें पिशाच योनि से छुटकारा मिला। श्रीकृष्ण जी कहने लगे युघिष्ठर इस जया एकादशी के व्रत से बुरी योनि छूट जाती है जिस मनुष्य ने इस एकादाशी का व्रत किया है उसने मानों सब यज्ञ, जप, दान आदि कर लिए इस व्रत को विधिवत् करने वाले हजारों वर्षों तक स्वर्ग में वास करते है।
व्रत विधि
जया एकादशी के दिन भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण जी की पूजा का विधान है जो व्यक्ति जया एकादशी व्रत का संकल्प लेना चाहता है, उसे व्रत के एक दिन पहले यानि दशमी के दिन एक बार भोजन करना होता है। इसके बाद एकादशी के दिन व्रत संकल्प लेकर धूप, फल, दीप, पंचामृत आदि से भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए। जया एकादशी की रात को सोना नही चाहिए, बल्कि भगवान का भजन-कीर्तन करना चाहिए या सहस्त्रनाम का पाठ करना चाहिए। अगले दिन स्नान के बाद पुनः भगवान का पूजन करने का विधान है पूजन के बाद भगवान को भोग लगाकर प्रसाद वितरण करना चाहिए। इसके बाद ब्राहमण को भोजन कराने और दान के बाद अपना उपवास खोलना चाहिए।
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