अक्षय तृतीया, वैशाख शुक्ल तृतीया को कहा जाता है। इस दिन को शुभ दिनों में से एक माना जाता है। अक्षय तृतीया को भगवान विष्णु ने परशुराम अवतार लिया था। वैशाख पक्ष की तृतीया के दिन ही सतयुग तथा त्रेतायुग की शुरुआत हुई थी। भगवान विष्णु ने अक्षय तृतीया तिथि को हयग्रीव तथा परशुराम के रूप में अवतार लिया था। इसी तिथि से हिन्दू तीर्थ स्थल बद्रीनाथ के दरवाजे खोले जाते हैं। वृन्दावन के बांके बिहारी मंदिर में चरण दर्शन, अक्षय तृतीया के दिन ही किए जाते हैं। ब्रह्मा पुत्र अक्षय कुमार का जन्म भी इसी दिन हुआ था। ऋिषि भृगु को जब अपने पुत्र के विवाह के विषय में जानकारी मिली तो वह अति प्रसन्न हुए और अपनी पुत्रवधू से वर माँगने को कहा। सत्यवती ने अपने तथा अपनी माता के लिए पुत्र प्राप्ति की कामना की। भृगु ने उन दोनों को चरु पात्र भक्षणार्थ दिये और कहा- ऋतुकाल के बाद स्नान करके सत्यवती गूलर के पेड़ तथा उसकी माता पीपल के पेड़ का आलिंगन करे।
तभी दोनों को पुत्र प्राप्त होंगे। माँ-बेटी के चरु खाने में अदला-बदली हो गयी। दिव्य दृष्टि से देखकर भृगु पुनः वहाँ पहुंचे तक उन्होंन सत्यवती से कहा कि तुम्हारी माता का पुत्र क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मणोचित व्यवहार करेगा तथा तुम्हारा बेटा ब्राह्मणोचित होकर भी क्षत्रियोचित आचार-विचार वाला होगा। बहुत अनुनय-विनय करने पर भृगु ने मान लिया कि सत्यवती का बेटा ब्राह्मणोचित रहेगा किंतु पोता क्षत्रियों की तरह कार्य करने वाला होगा। सत्यवती के पुत्र जमदग्नि मुनि हुए। उन्होंने राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका से विवाह किया। रेणुका के पाँच पुत्र हुएः रुमण्वान, सुषेण, वसु, विश्वावसु और पाँचवें पुत्र का नाम परशुराम था। वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि पर भगवान विष्णु के अवतार परशुराम का जन्म हुआ था। अक्षय तृतीया के दिन ही इनकी जयंती मनाई जाती है। कलयुग में आज भी ऐसे 8 चिरंजीव देवता और महापुरुष है जो जीवित हैं। इन्हीं 8 चिरंजीवियों में एक भगवान विष्णु के छठे अवतार परशुराम भी हैं। ब्राह्मण कुल में पैदा फिर भी क्षत्रियों जैसा व्यवहार। भगवान शिव के परमभक्त परशुराम न्याय के देवता हैं, इन्होंने 21 बार इस धरती को क्षत्रिय विहीन किया था। यही नहीं इनके क्रोध से भगवान गणेश भी नहीं बच पाये थे।
रामभद्र से परशुराम
परशुराम के जन्म का नाम राम माना जाता है तो कुछ रामभद्र, इन्हें भार्गव, भृगुपति, जमदग्न्य, भृगुवंशी आदि नामों से भी जाना जाता है। मान्यता है कि पापियों के संहार के लिए इन्होंने भगवान शिव की घोर तपस्या कर उनसे यद्ध कला में निपुणता का वरदान प्राप्त किया। भगवान शिव से उन्हें कई अद्वितीय शस्त्र भी प्राप्त हुए इन्हीं में से एक था भगवान शिव का परशु जिसे फरसा या कुल्हाड़ी भी कहते हैं। यह इन्हें बहुत प्रिय था व इसे हमेशा साथ रखते थे। परशु धारण करने के कारण ही इन्हें परशुराम कहा गया।
पिता का आदेश सर्वपरि
एक बार माँ कलश लेकर जल भरने के लिए नदी पर गयीं। वहाँ गंधर्व चित्ररथ अप्सराओं के साथ जलक्रीड़ा कर रहा था। उसे देखने में रेणुका इतनी तन्मय हो गयी कि जल लाने में विलंब हो गया तथा यज्ञ का समय व्यतीत हो गया। एक बार रेणुका राजा चित्ररथ पर मुग्ध हो गयी। उसके आश्रम पहुँचने परमुनि को दिव्य ज्ञान से समस्त घटना ज्ञात हो गयी। उन्होंने क्रोध के आवेश में बारी-बारी से अपने चार बेटों को माँ की हत्या करने का आदेश दिया। किंतु कोई भी तैयार नहीं हुआ। जमदग्नि ने अपने चारों पुत्रों को जड़बुद्ध होने का शाप दिया। परशुराम ने तुरन्त पिता की आज्ञा का पालन किया। जमदग्नि ने प्रसन्न होकर उसे वर माँगने के लिए कहा। परशुराम ने पहले वर से माँ का पुनः जीवन माँगा और फिर अपने भाईयों को क्षमा कर देने के लिए कहा। जमदग्नि ऋषि ने परशुराम से कहा कि वो अमर रहेगा।
सहस्त्रबाहु अर्जुन
हैहयवंश का अन्त करने के लिये स्वयं भगवान विष्णु ने परशुराम के रूप में अंशावतार ग्रहण किया था। उन दिनों हैहयवंश का अधिपति था। वह एक श्रेष्ठ क्षत्रिय था। उसने अनेकों प्रकार की सेवा करके भगवान नारायण के अंशावतार दत्तात्रेयजी को प्रसन्न कर लिया और उनसे एक हजार भुजाएँ तथा कोई भी शत्रु युद्ध में पराजित न कर सके यह वरदान प्राप्त कर लिया। साथ ही इन्द्रियों का अबाध बल, अतुल सम्पत्ति, तेजस्विता, वीरता, कीर्ति और शारीरिक बल भी उसने उनकी कृपा से प्राप्त कर लिये थे। सभी सिद्धियाँ उसे प्राप्त थी। वह संसार में वायु की तरह सब जगह बेरोक-टोक विचरा करता। एक बार गले में वैजयन्ती माला पहने सहस्त्रबाहु अर्जुन बहुत-सी सुन्दरी स्त्रियों के साथ नर्मदा नदी में जल-विहार कर रहा था। उस समय मदोन्मत्त सहस्त्रबाहु ने अपनी बाँहों से नदी का प्रवाह रोक दिया। दशमुख रावण का शिविर भी वहीं कहीं पास में ही था। नदी की धारा उलटी बहने लगी जिससे उसका शिविर डूबने लगा। रावण अपने को बहुत बड़ा वीर तो मानता ही था इसलिये सहस्त्रार्जुन का यह पराक्रम उससे सहन नहीं हुआ। जब रावण सहस्त्रबाहु अर्जुन के पास जाकर बुरा-भला कहने लगा तब उसने स्त्रियों के सामने ही खेल-खेल में रावण को पकड़ लिया और अपनी राजधानी माहिष्मती में ले जाकर बंदर के समान कैद कर लिया। पीछे पुलस्त्यजी के कहने से सहस्त्रबाहु ने रावण को छोड़ दिया।
कामधेनु सहस्त्रबाहु अर्जुन की मृत्यु का कारण बनी
एक दिन सहस्त्रबाहु अर्जुन शिकार खेलने के लिए जंगल में निकल गया था। वह जमदग्नि मुनि के आश्रम पर जा पहुँचा। परम तपस्वी जमदग्नि मुनि के आश्रम में कामधेनु रहती थी। उसके प्रताप से उन्होंने सेना, मन्त्री और वाहनों के साथ हैहयाधिपति का देखा कि जमदग्नि मुनि का ऐश्वर्य तो मुझसे भी बढ़ा-चढ़ा है। इसलिये उसने उनके स्वागत-सत्कार को कुछ भी आदर न देकर कामधेनु को ही ले लेना चाहा। उसने अभिमानवश जमदग्नि मुनि से माँगा भी नही अपने सेवकों को आज्ञा दी कि कामधेनु को छीन ले चलो। उसकी आज्ञा से उसके सेवक बछड़े के साथ कामधेनु को बलपूर्वक माहिष्मतीपुरी ले गये। जब वे सब चले गये तब परशुरामजी आश्रम पर आये और उसकी दुष्टता का वृत्तान्त सुनकर चोट खाये हुए साँप की तरह क्रोध से तिलमिला उठे। वे अपना भयंकर फरसा, तरकस, ढाल एवं धनुष लेकर बड़े वेग से उसके पीछे दौड़े।
सहस्त्रबाहु अर्जुन अभी अपने नगर में प्रवेश कर ही रहा था कि उसने देखा परशुरामजी महाराज बड़े वेग से उसी की ओर आ रहे हैं। भगवान परशुराम ने अकेले ही उस सारी सेना को नष्ट कर दिया। भगवान परशुरामजी की गति मन और वायु के समान थी। वे शत्रु की सेना काटते ही जा रहे थे। हैहयाधिपति अर्जुन ने देखा कि मेरी सेना के सैनिक उनके फरसे और बाणों से कट-कटकर रणभूमि में गिर गये है तब उसे बड़ा क्रोध आया और वह स्वयं भिड़ने के लिये आ धमका। उसने एक साथ ही अपनी हजार भुजाओं से पाँच सौ धनुषों पर बाण चढ़ाये और परशुरामजी पर छोड़े। परन्तु परशुराम जी तो समस्त शस्त्रधारियों के शिरोमणि ठहरे। उन्होंने अपने एक धनुष पर छोड़े हुए बाणों से ही एक साथ सबको काट डाला। अब हैहयाधिपति अपने हाथों से पहाड़ और पेड़ उखाड़कर बड़े वेग से युद्ध भूमि में परशुरामजी की ओर झपटा। परन्तु परशुरामजी ने अपनी तीखी धारवाले फरसे से उसकी साँपों के समान भुजाओं को काट डाला। जब उसकी बाँहें कट गयी तब उन्होंने पहाड़ की चोटी की तरह उसका ऊँचा सिर धड़ से अलग कर दिया। पिता के मर जाने पर उसके दस हजार लड़के डरकर भग गये।
भगरवान परशुराम की प्रतिज्ञा
आज्ञाकारी संतान भगवान परशुराम ने अपने माता-पिता के अपमान का बदला लेने के लिए 21 बार इस धरती को क्षत्रिय विहीन कर दिया था। दरअसल हैहय वंश के राजा सहस्त्रार्जुन ने अपने बल और घमंड के कारण लगातार ब्राह्मणों और ऋषियों पर अत्याचार कर रहा था। एक बार सहस्त्रार्जुन अपनी सेना सहित भगवान परशुराम के पिता जमदग्रि मुनि के आश्रम में पहुंचा। जमदग्नि ने सेना का स्वागत और खान पान की व्यवस्था अपने आश्रम में की। मुनि ने आश्रम की चमत्कारी कामधेनु गाय के दूध से समस्त सैनिकों की भूख शांत की। कामधेनु गाय के चमत्कार से प्रभावित होकर उसके मन में लालच पैदा हो गया। इसके बाद जमदग्रि मुनि से कामधेनु गाय को उसने बलपूर्वक छीन लिया।
जब यह बात परशुराम को पता चली तो उन्होंने सहस्त्रार्जुन का वध कर दिया। सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने बदला लेने के लिए परशुराम के पिता का वध कर दिया और पति के वियोग में भगवान परशुराम की माता चिता पर सती हो गयीं। बाद में पिता के शरीर पर 21 घाव को देखकर परशुराम ने शपथ ली कि वह इस धरती से समस्त क्षत्रिय वंशों का संहार कर देंगे। भगवान परशुराम ने 21 बार पृथ्वी के समस्त क्षत्रियों का संहार किया। समंत पंचक क्षेत्र में पाँच रुधिर के कुंड भर दिये। क्षत्रियों के रुधिर से परशुराम ने अपने पितरों का तर्पण किया। उस समय ऋचीक साक्षात प्रकट हुए तथा उन्होंने परशुराम को ऐसा कार्य करने से रोका। ऋत्विजों को दक्षिणा में पृथ्वी प्रदान की। ब्राह्मणों ने कश्यप की आज्ञा से उस वेदी को खंड-खंड करके बाँट लिया, अतः वे ब्राह्मण जिन्होंने वेदी को परस्पर बाँट लिया और खांडवायन कहलाये।
भगवान गणेश का एक दांत तोड़ा था
एक बार भगवान परशुराम शिव के दर्शन करने के लिए कैलाश पर्वत पहुँचे लेकिन भगवान गणेश ने उन्हें उनसे मिलने नहीं दिया। इस बात से क्रोधित होकर उन्होंने अपने फरसे से भगवान गणेश का एक दांत तोड़ा डाला। इस कारण से भगवान गणेश एकदंत कहलाने लगे। द्वापर में उन्होंने कौरव सभा में कृष्ण का समर्थन किया था। भगवान श्रीकृष्ण को उन्होंने सुदर्शन चक्र उपलब्ध करवाया था। कुन्ती पुत्र कर्ण ने अपना परिचय छिपाकर भगवान परशुराम से अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा प्राप्त करते है। एक दिन जब भगवान परशुराम जी को पता चलता है कि कर्ण भी क्षत्रिय वंश से है तो वह उन्हें श्राप देते है। जब तुम्हें सबसे ज्यादा अस्त्र-शस्त्र विद्या की जरूरत पड़ेगी तब तुम इस विद्या को भूल जाओगे। इसी श्रााप के कारण कर्ण की मृत्यु संभव हुई। उन्होंने भीष्म, द्रोण को भी अस्त्र-शस्त्र विद्या प्रदान की थी।
त्रेतायुग और द्वापरयुग में रहे मौजूद
परशुराम भी भगवान् विष्णु के अवतारी है तो भगवान् राम भी दोनों एक ही समय में थे हालाँकि तब तक परशुराम जी अपनी सारी लीलाये कर चुके थे. तब शायद अपनी शक्तिया राम जी को देने के लिए वो आये थे जनक सुता के स्वयंर में जंहा राम जी ने कर दिया था शिव धनुष भंग। तब राम जी ने परशुराम जी का सारा तेज खिंच कर अपने में आत्मसात कर लिया था और परशुराम जी तब पुनः महेंद्र पर्वत पर तपस्थ हो गए थे। ऐसे ही सुदर्शन चक्र जो की विष्णु जी का ही अंश है के अवतार राजा सहस्त्र अर्जुन थे उन्हें परशुराम जी ने ही मारा था। मान्यता है कि भगवान परशुराम हर युग में मौजूद रहे और आज भी वह दुनिया में मौजूद हैं। पुराणों के अनुसार परशुराम ने न सिर्फ महाभारत का युद्ध बल्कि भगवान श्री राम की लीला भी देखी थी।
परशुराम और भीष्म में युद्ध
गंगा पुत्र भीष्म को परशुराम ने अस्त्रों शास्त्रों की विद्या दी थी युद्ध में पारंगत भीष्म अजेय थे कोई भी उन्हें युद्ध की चुनौती देने से घबराता था। एक दिन काशी राज्य के राजा ने अपनी पुत्रियों के विवाह के लिए स्वयम्बर का आयोजन किया। काशी नरेश के तीनो पुत्रियाँ अत्यधिक सुन्दर एवं गुणवान थी जिनका नाम अम्बा, अम्बिका एवं अम्बाला था। उनके स्वयंबर में बहुत दूर दूर से राजा महाराजा काशी नरेश आये। शांतुन पुत्र भीष्म ने भी उस स्वयम्बर में हिस्सा लिया। क्योकि उस समय तक भीष्म काफी वृद्ध हो चले थे तो उन्हें देख लोगो समझने हसने लगे। वहाँ उपस्थित सभी लोग यह सोच रहे थे की भीष्म अपने विवाह के लिए यहाँ आये है। परन्तु भीष्म को अपने भाई विचित्रवीर्य के विवाह के लिए सुन्दर कन्या चाहिये थी। स्वयम्बर में पधारे राजाओ के व्यवहारों से भीष्म पितामह को काफी आहत पहुंची तथा गुस्से में उन्होंने तीनो राजकुमारियों का हरण कर लिया।
वहाँ आये राजा महाराजो ने उन्हें रोकने का प्रयास किया परन्तु अजेय भीष्म के आगे कोई भी नहीं टिक सका। सब को युद्ध में मुंह की खानी पड़ी। तीनो राजकुमारियों को हरण कर भीष्म उन्हें हस्तिनापुर में लाये उन दिनों राजपूतो द्वारा राजकुमारियों के हरण कर शादी करने की प्रथा थी। जब इन तीनों राजकुमारियों के विवाह की तैयारियाँ हो रही थी। राजकुमारी अम्बा इससे प्रसन्न नहीं थी। भीष्म के पूछने पर उसने कहा कि वह राजा शल्य से प्यार करती है। इसलिए विचित्रवीर्य से विवाह नहीं कर सकती। भीष्म ने इस पर विचार कर उसे राजा शल्य के पास जाने की अनुमति दे दी। उसके बाद राजकुमारी अम्बा राजा शल्य के पास चली गई। परन्तु राजा शल्य को अम्बा के हरण का समाचार मिल चुका था। इसलिए शल्य ने उससे विवाह करने से इंकार कर दिया।
तपस्वियों के पास पहुंचकर अम्बा ने उसे पूरी कहानी सुनाई और तपस्या करने की जिद करने लगी। तभी वहां होत्रहान जो कि अम्बा के नाना थे वे आए। उन्होंने अम्बा कि कहानी सुनी और कहा बेटी मैं तेरा नाना हूँ तू मेरी बात मान और परशुरामजी के पास जाकर अपनी परेशानी बता दे। अम्बा ने अपनी सारी कहानी परशुरामजी को सुनाई। उसकी कहानी सुनकर परशुरामजी को क्रोध आया उन्होंने भीष्म को युद्ध के लिए ललकारा और उनमें भीषण युद्ध हुआ। यह युद्ध बहुत ही भयंकर था। यह युद्ध 24 दिन तक चला इस युद्ध में भी अत्यन्त घातक अस्त्रों शस्त्रों का प्रयोग किया गया था। जब इस युद्ध का कोई परिणाम निकलता नजर नहीं आ रहा था तब पितरो के बात मान कर भगवान परशुराम ने अपने अस्त्र रख दिए। इस प्रकार इस युद्ध में नाही किसी की हार हुई और नाही किसी की जीत।