भगवान शिव की महिमा, शिव के आभूषण - Glory of Lord Shiva

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भगवान शिव की महिमा, शिव के आभूषण
(Glory of Lord Shiva )

शिवपुराण के अनुसार भगवान शिव को सभी अस्त्रों को चलाने में सिद्धि प्राप्त है। मगर धनुष और त्रिशूल उन्हें सबसे प्रिय है। माना जाता है सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मनाद से जब भगवान शिव और उनके साथ रज, तम, सत यह तीनों गुण भी प्रकट हुए। इनके बीच सांमजस्य बनाए बगैर सृष्टि का संचालन कठिन था। इसलिए भगवान शिव ने त्रिशूल रूप में इन तीनों गुणों को अपने हाथों में धारण किया। भगवान शिव के त्रिशूल के आगे सृष्टि की किसी भी शक्ति का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता है। वेदों और पुराणों में भगवान शिव को संहारकर्ता के रूप में बताया गया है। जबकि नटराज को इसके विपरित है।

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शिव के आभूषण से सकारात्मक ऊर्जा उत्पन होती: मान्यता है कि सृष्टि की रचना के समय जब विद्या और संगीत की देवी सरस्वती अवतरित हुईं तो उनकी वाणी से जो ध्वनि पैदा हुई वह सुर व संगीत रहित थी। शास्त्रों के अनुसार तब भगवान शिव ने 14 बार डमरू और अपने तांडव नृत्य से संगीत की उत्पति की और तभी से उन्हें संगीत का जनक माना जाने लगा। इस ध्वनि से व्याकरण और संगीत के धन्द, ताल का जन्म हुआ। कहते हैं डमरू ब्रह्म का स्वरूप है जो दूर से विस्तृत नजर आता है लेकिन जैसे ब्रह्म के करीब पहुंचते हैं वह संकुचित हो दूसरे सिर से मिल जाता है और फिर विशालता की ओर बढ़ता है। लोक मान्यताओं के अनुसार, घर में डमरू रखना शुभ गया है क्योंकि शिवजी के प्रतीक होने के साथ ही इसे सकारात्मक ऊर्जा उत्पन होती है।

शिव के हर आभूषण का अपना महत्व (Importance of each ornament of Shiva) 

नंदी- पुराणों के अनुसार नंदी और भगवान शिव एक ही हैं। भगवान शिव ने नंदी रूप में जन्म लिया था। शिलाद नाम के ऋिषि मोह माया से मुक्त होकर तपस्या में लीन हो गए इसके कारण उनके पूर्वज और पित्तरों को चिंता हुई कि उनका वंश समाप्त हो जाएगा। पित्तरों की सलाह पर शिलाद ने भगवान शिव की तपस्या करके एक अमर पुत्र को प्राप्त किया जिस नंदी नाम से जाना गया। भगवान शिव का अंश होने के कारण नंदी भगवान शिव के करीब रहना चाहता था। इसलिए भगवान शिव की तपस्या से नंदी शिव गणों में प्रमुख हुए और वृषभ रूप में भगवान शिव का वाहन बनने का सौभाग्य प्राप्त किया

पिनाक धनुष- पिनाक भगवान शिव का धनुष सबसे शक्तिशाली था। संपूर्ण धर्म, योग और विद्याओं की शुरुआत भगवान शंकर से होती है और उसका अंत भी उन्हीं पर होता है। भगवान शंकर ने इस धनुष से त्रिपुरासुर को मारा था। त्रिपुरासुर अर्थात तीन महाशक्तिशाली और ब्रह्मा से अमरता का वरदान प्राप्त असुर। शिव ने जिस धनुष को बनाया था उसकी टंकार से ही बादल फट जाते थे और पर्वत हिलने लगते थे। ऐसा लगता था मानो भूकंप आ गया हो। यह धनुष बहुत ही शक्तिशाली था। इसी के एक तीर से त्रिपुरासुर की तीनों नगरियों को ध्वस्त कर दिया गया था। इस धनुष का नाम पिनाक था। देवी और देवताओं के काल की समाप्ति के बाद इस धनुष को देवराज इन्द्र को सौंप दिया गया था। देवताओं ने राजा जनक के पूर्वज देवराज इन्द्र को दे दिया। राजा जनक के पूर्वजों में निमि के ज्येष्ठ पुत्र देवराज थे। शिव-धनुष उन्हीं की धरोहर स्वरूप राजा जनक के पास सुरक्षित था। इस धनुष को भगवान शंकर ने स्वयं अपने हाथों से बनाया था। उनके इस विशालकाय धनुष को कोई भी उठाने की क्षमता नहीं रखता था।

रुद्राक्ष- रुद्राक्ष को रूद्र का अक्ष मानते है इसकी उत्पत्ति भगवान शिव के अश्रुओं से हुई है। कहते है कई वर्षों तपस्या के बाद जब भगवान शिव ने अपनी आँख खोली तब उनकी आँखों के अश्रु धरती पर गिरे जहांँ पर शिव की आँख का अश्रु गिरे वहाँ रुद्राक्ष का पेड़ बन गया। शिव के अश्रु कहे जाने वाले रुद्राक्ष चौदह प्रकार के होते हैं इनकी अपनी  अलग-अलग चमत्कारिक शक्ति होती है।

वासुकी नाग- पुराणों के अनुसार, भगवान शिव के गले में लटके नागलोक के राजा वासुकी हैं। वासुकी नाग भगवान शिव के परम भक्त थे। इनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने इन्हें नागलोक का राजा बना दिया और साथ ही अपने गले में आभूषण की तरह लिपटे रहने का वरदान दिया। सागर मंथन के समय इन्होंने रस्सी का काम किया था जिससे सागर को मथा गया था।

त्रिपुंड- त्रिपुंड को सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण तीनों ही गुणों को नियंत्रित करने के कारण भगवान शिव ने त्रिपुंड तिलक किया और इन्हें तीनों गुणों का प्रतीक माना जाता है। त्रिपुंड सफेद चन्दन का होता है, कोई भी व्यक्ति जो शिव का भक्त हो त्रिपुंड का प्रयोग कर सकता है, त्रिपुंड के बीच में लाल रंग का बिंदु विशेष दशाओं में ही लगाना चाहिए। ध्यान-मंत्र जाप करने के समय त्रिपुंड लगाने के परिणाम अति फलदायक होता है।

भस्म- पुराणों के अनुसार दक्ष प्रजपति के यज्ञ कुंड में सती के आत्मदाह करने के बाद भगवान शिव उग्र रूप धारण कर लेते हैं और सती के देह को कंधे पर लेकर त्रिलोक में हहाकार मचाने लगते हैं। अंत में भगवान विष्णु सुर्दशन चक्र से सती के देह को खंडित कर देते हैं। इसके बाद भगवान शिव अपने माथे पर हवन कुंड की राख मलते और इस तरह सती को अपने माथे पर स्थान देते हैं।

चन्द्रमा- शिव पुराण के अनुसार चन्द्रमा का विवाह दक्ष प्रजापति की 27 कन्याओं से हुआ था। यह कन्याएं 27 नक्षत्र हैं। इनमें चन्द्रमा रोहिणी से विशेष स्नेह करते थे। इसकी जानकारी जब अन्य कन्याओं ने दक्ष से की तो दक्ष ने चन्द्रमा को क्षय होने का शाप दे दिया। इस शाप बचने के लिए चन्द्रमा ने भगवान शिव की तपस्या की। चन्द्रमा की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने चन्द्रमा के प्राण बचाए और उन्हें अपने शीश पर धारण किया। जहां चन्द्रमा ने जिस स्थान पर तपस्या की थी वह स्थान सोमनाथ कहलाता है। मान्यता है कि दक्ष के शाप से ही चन्द्रमा घटता बढ़ता रहता है।

माँ गंगा- भगवान शिव के माथे पर गंगा के विराजमान होने श्रेय राजा भगीरथ को माना जाता है। भगीरथ ने अपने पूर्वज सगर के पुत्रों को मुक्ति दिलाने के लिएि गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर उतारा था। एक अन्य कथा के अनुसार ब्रह्मा की पुत्री गंगा बड़ी चंचल स्वभाव की थी एक दिन ऋिषि दुर्वासा जब नदी में स्नान करने आए तो हवा से उनका वस्त्र उड़ गया और तभी गंगा हंस पड़ी। क्रोधी दुर्वासा ने गंगा को शाप दे दिया तुम धरती पर जाओगी और पापी तुम में अपना पाप धोएंगे। इस घटना के बाद भगीरथ का तप शुरू हुआ और भगवान शिव ने भगीरथ को वरदान देते हुए गंगा को स्वर्ग से धरती पर आने के लिए कहा। लेकिन गंगा के वेग से पृथ्वी की रक्षा के लिएि भगवान शिव ने उन्हें अपनी जटाओं में बांधना पड़ा। 

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भगवान शिव के अवतार (Bhagwan Shiv Ke Avatars)

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