भगवान विष्णु के अवतार धनवन्तरि- Bhagwan Dhanwantri

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भगवान विष्णु के अवतार धनवन्तरि

देव धनवन्तरि को भगवान विष्णु का ही स्वरूप माना जाता है। धन प्राप्ति के लिए उपाय उनकी भी चार भुजाएं हैं, जिनमें से ऊपर के दोनों हाथों में चक्र और शंख धारण करते हैं। उनके अन्य दो हाथों में से पहले में औषधि और जलूका तथा दूसरे हाथ में अमृत कलश होता है। भगवान धन्वन्तरि आयुर्वेद जगत् के प्रणेता तथा वैद्यक शास्त्र के देवता माने जाते हैं। भारतीय पौराणिक दृष्टि से धनतेरस को स्वास्थ्य के देवता धन्वन्तरि का दिवस माना जाता है। धन्वन्तरि आरोग्य, सेहत, आयु और तेज के आराध्य देवता हैं। धनतेरस के दिन उनसे प्रार्थना की जाती है कि वे समस्त जगत् को निरोग कर मानव समाज को दीर्घायु प्रदान करें। देवता एवं दैत्यों के सम्मिलित प्रयास से समुद्र मन्थन स्वयं क्षीर-सागरशायी कर रहे थे। हलाहल, कामधेनु, ऐरावत, उच्चैःश्रवा अश्व, अप्सराएँ, कौस्तुभमणि, वारुणी, महाशंख, कल्पवृक्ष, चन्द्रमा, लक्ष्मी और कदली वृक्ष उससे प्रकट हो चुके थे। अन्त में हाथ में अमृतपूर्ण स्वर्ण कलश लिये श्याम वर्ण, चतुर्भुज भगवान धन्वन्तरि प्रकट हुए। 

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चतुर्भुज भगवान धन्वन्तरि

अमृत-वितरण के पश्चात् देवराज इन्द्र की प्रार्थना पर भगवान धन्वन्तरि ने देव-वैद्य का पद स्वीकार कर लिया। अमरावती उनका निवास बनी। कालक्रम से पृथ्वी पर मनुष्य रोगों से अत्यन्त पीड़ित हो गये। प्रजापति इन्द्र ने धन्वन्तरि जी से प्रार्थना की। भगवान ने काशी के राजा दिवोदास के रूप में पृथ्वी पर अवतार धारण किया। धनतेरस के दिन ऐसी चीजें न खरीदें और न ही घर में लायें  इनकी धन्वन्तरि-संहिता आयुर्वेद का मूल ग्रन्थ है। आयुर्वेद के आदि आचार्य सुश्रुत मुनि ने धन्वन्तरि जी से ही इस शास्त्र का उपदेश प्राप्त किया था। आदिकाल में आयुर्वेद की उत्पत्ति ब्रह्मा से ही मानते हैं। आदिकाल के ग्रंथों में रामायण-महाभारत तथा विविध पुराणों की रचना हुई, जिसमें सभी ग्रंथों ने आयुर्वेदावतरण के प्रसंग में भगवान धन्वन्तरि का उल्लेख किया है। धन्वन्तरि प्रथम तथा द्वितीय का वर्णन पुराणों के अतिरिक्त आयुर्वेद ग्रंथों में भी मिलता है, भगवान वेद व्यास द्वारा रचित श्रीमद्भावत पुराण के अनुसार धन्वन्तरि को भगवान विष्णु का अंश माना गया है। कहा जाता है कि देवता और असुर एक ही पिता कश्यप ऋषि के संतान थे। किंतु इनकी वंश वृद्धि बहुत अधिक हो गई थी। अतः ये अपने अधिकारों के लिए परस्पर आपस में लड़ा करते थे। वे तीनों ही लोकों पर राज्याधिकार प्राप्त करना चाहते थे। असुरों या राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य थे, जो संजीवनी विद्या जानते थे और उसके बल से असुरों को पुनः जीवित कर सकते थे। इसके अतिरिक्त दैत्य, दानव आदि माँसाहारी होने के कारण हृष्ट-पुष्ट स्वस्थ तथा दिव्य शस्त्रों के ज्ञाता थे। अतः युद्ध में असुरों की अपेक्षा देवताओं की मृत्यु अधिक होती थी। 

धन्वन्तरि आरोग्य, सेहत, आयु और तेज के आराध्य 

गरुड़पुराण और मार्कण्डेयपुराण के अनुसार वेद मंत्रों से अभिमंत्रित होने के कारण ही धन्वन्तरि वैद्य कहलाए थे।विष्णुपुराण के अनुसार धन्वन्तरि दीर्घतथा के पुत्र बताए गए हैं। इसमें बताया गया है वह धन्वन्तरि जरा विकारों से रहित देह और इंद्रियों वाला तथा सभी जन्मों में सर्वशास्त्र ज्ञाता है। भगवान नारायण ने उन्हें पूर्वजन्म में यह वरदान दिया था कि काशिराज के वंश में उत्पन्न होकर आयुर्वेद के आठ भाग करोगे और यज्ञ भाग के भोक्ता बनोगे। इस प्रकार धन्वन्तरि की तीन रूपों में उल्लेख मिलता है। आयु के पुत्र का नाम धन्वन्तरि था। वह वीर यशस्वी तथा धार्मिक था। राज्यभोग के उपरांत योग की ओर प्रवृत्त होकर वह गंगा सागर संगम पर समाधि लगाकर तपस्या करने लगा। गत अनेक वर्षों से उससे त्रस्त महाराक्षस समुद्र में छुपा हुआ था। वैरागी धन्वन्तरि को देख उसने नारी का रूप धारण कर उसका तप भंग कर दिया, तदनंतर अंतर्धान हो गया। धन्वन्तरि उसी की स्मृतियों में भटकने लगा। ब्रह्मा ने उसे समस्त स्थिति से अवगत किया तथा विष्णु की आराधना करने के लिए कहा। 

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